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भेदोंके मूल, उद्भव, विकास आदि, (२) व्याप्ति-स्वरूप. तर्कको व्याप्ति-ग्राहकता, व्याप्ति-भेद, उपाधिविमर्श आदि ।
चतुर्थ अध्यायमें अनुमानके अवयवों व हेतुके स्वरूपकी विवेचना है। इसमें दो परिच्छेद है, जिनमें क्रमशः (१) अनुमान-अवयव (विकास-क्रम, संख्या, जनेतर व जैनदर्शनमें अवयव-संख्या), (२) हेतु-विमर्श (हेतु-स्वरूप, एक-द्वि-त्रि-चतु:-पञ्च-षड्-सप्त लक्षणकी समीक्षा, अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु-लक्षणकी निर्दोषता, हेतु-भेद) की विवेचना है ।
पंचम अध्यायमें अनुमानाभास एवं अनुमान-दोषोंका निरूपण है। इसमें दो परिच्छेद है, जिनमें क्रमशः चर्चित विषय इस प्रकार हैं-(१) जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित अनुमानाभास, (२) जैनेतर दर्शनमें चचित अनुमान-दोष : एक तुलनात्मक अध्ययन ।
__ अन्तमें उपसंहार है जिसमें जैन तार्किकोंके चिन्तनकी मौलिकता, विशदता व सूक्ष्मता आदिको इंगित किया गया है।
ग्रन्थके अन्तमें चार परिशिष्ट हैं-(१) सन्दर्भग्रन्थसूची, (२) नामानुक्रमणी (मुद्रित ग्रन्थके उन स्थलोंका पृष्ठ-निर्देश, जिसमें भारतीय ग्रन्थ व ग्रन्थकारोंका नामोल्लेख हुआ है), (३) प्रमुख दार्शनिकताकिक-पारिभाषिक शब्द-सूची (मुद्रित ग्रन्थमें कहाँ-कहाँ विशिष्ट पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त हुए है-इसका निर्देश) । (४) जैन-तर्कशास्त्रके प्रमुख आचार्य और उनकी कृतियाँ (काल-क्रमसे जैन तार्किकों और उनकी कृतियोंका विवरण ।
सबके अन्तमें ग्रन्थ-संकेतसूची दी गई है।
समस्त दर्शन-जगत्की ओरसे मैं विद्वान् लेखक तथा इसको प्रकाशक-संस्थाको साधुवाद प्रदान करता हूँ।
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