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जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार
( एक समीक्षण ) । समीक्षक-डॉ० दामोदर शास्त्री, एम० ए० पी-एच० डी०, नई दिल्ली तार्किक और वणिक्की समानता
हमारे दैनिक जीवन में उपयोग हेतु विविध भोग्य | उपभोग्य वस्तुओंकी आवश्यकता होती है। उन विविध वस्तुओंका आदान-प्रदानादि व्यवहार विविध मानकों-सही माप-तोलों-आदि पर आधारित होता है।
भौतिक स्तर (धरातल) पर होने वाली परिमापन (परिमिति) क्रियामें प्रयुक्त सामान्य मानकों (तोलनेके वाटों, विविध नाप तौलके साधनों) की तुलनामें चेतन स्तरपर होने वाली उक्त क्रियामें ज्ञान-रूपी मानककी श्रेष्ठता निर्विवाद है । इस दृष्टिसे, उसकी संज्ञा प्रमाण (प्र + मान) है । दार्शनिक चिन्तनके क्षेत्रमें प्रत्येक दर्शनकी अपनी एक तत्त्व-मीमांसा होती है जिसमें स्वीकृत तत्त्वों (प्रमेयों) का जहाँ निरूपण होता है, वहाँ ज्ञान-मीमांसाके अन्तर्गत उक्त 'प्रमाण' का विश्लेषण विवेचन आदि किया जाता है, अर्थात् उक्त चेतनाके (इन्द्रियादिके माध्यमसे सामान्यतः असाक्षात्, किन्तु विशिष्ट परिस्थितिमें साक्षात् भी) व्यापारका अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। उक्त दृष्टिसे, व्यापारी और तार्किक-दोनों समान हैं, क्योंकि जहाँ व्यापारी वस्तुकी प्रामाणिक नाप-तौल हेतु सही मानकों-नापतौलके साधनोंका प्रयोग करता है, वहाँ तार्किक वस्तु-तत्त्वका परीक्षण यथार्थ प्रमाणों-युक्तियों/तोंके आधारपर करता है।'
.... जैन परम्परामें भी स्वतन्त्र 'प्रमाण-मीमांसा' प्रतिष्ठित हुई है, और उसके अन्तर्गत अनुमान-प्रमाण सम्बन्धी विमर्श भी अत्यन्त विद्वत्तापर्ण रीतिसे जैन नैयायिकों द्वारा किया गया है। जिसका भारतीय न्यायके क्षेत्रमें विशिष्ट स्थान है। 'न्याय' शब्दका प्रयोग विविध अर्थों में
भारतीय दार्शनिक क्षेत्रमें 'न्याय' शब्द एक विशिष्ट व स्वतन्त्र दर्शन-शास्त्रको तो व्यक्त करता ही है, साथ ही यह एक विशिष्ट अर्थ-परीक्षण-पद्धतिके रूपमें प्रत्येक दर्शनकी 'प्रमाण-मीमांसा' का भी परिचायक है, और यही कारण है कि बौद्ध न्याय, जैन न्याय आदि शब्दोंका प्रयोग दार्शनिक क्षेत्रमें किया जाता रहा है ।
१. प्रसिद्धनाविरुद्धेन, मानेनाव्यभिचारिणा ।
वणिजस्ताकिकाश्चापि, यत्र वस्त प्रमिन्वते ।।--चन्द्रप्रभचरित, २।१४२ । प्रमाणैरर्थपरीक्षणं 'न्याय':........""समस्तप्रमाण-व्यापाराद अर्थाधिगतिः न्यायः' । (न्यायवार्तिक, वात्स्यायन-न्यायभाष्य, १११११)। नीयते प्राप्यते विवक्षितार्थसिद्धिरनेन इति न्यायः ।
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