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जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन : समीक्षात्मक अध्ययन डॉ० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, जयपुर
जैन दर्शनका भारतीय दर्शनोंमें विशिष्ट स्थान है । इसे हम दूसरे शब्दोंमें भारतीय दर्शनोंकी आत्मा भी कह सकते हैं । जब तक जैन दर्शनका सूक्ष्म अध्ययन नहीं किया जाता तब तक दर्शनशास्त्र के गूढ़ तत्त्वोंको किसीके लिये भो समझ पाना कठिन है । भगवान ऋषभदेवसे लेकर महावीर तक जैन दर्शनने जीवनदर्शनका कार्य किया तथा मानवमात्रको अपने कर्त्तव्यका बोध कराकर जीने-मरनेकी कला सिखलायी । महावीरके पश्चात् देशमें जब दार्शनिक क्षेत्रमें खण्डन मण्डनका युग आया । शास्त्रार्थोकी परम्पराका तीव्र वेग चला और शास्त्रार्थों में जय-पराजयके आधारपर धर्म-परिवर्तन होने लगे । पराजितोंपर दमन चक्र चलाया जाने लगा। ऐसे युगमें भी जैन दर्शनके आचार्योंने अपने अकाट्य तर्कों एवं सबल प्रमाणोंके आधारपर सारे देशमें महावीर के सिद्धान्तों एवं उनके दर्शनको विजय पताका फहरायी । ऐसे आचार्यों में समन्तभद्र, विद्यानन्द, अकलंकदेवके नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । आचार्य समन्तभद्रकी घोषणा "वावार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम्" जैनदर्शन के अकाट्य प्रमाणोंका अविजित प्रस्तुतीकरण है । इसी प्रकार घोषणा करनेवाले एकके पीछे दूसरे आचार्य होते गये और शास्त्रार्थोके वातावरण में भी जैनदर्शनको नींवको कभी हिलने नहीं दिया।
वर्तमान युगमें जैन दार्शनिकोंमें डॉ० दरबारीलाल कोठियाका सर्वोपरि स्थान है । डॉ० कोठिया जैनदर्शनके पारंगत विद्वान माने जाते हैं तथा जैनदर्शन के गढ़ रहस्योंकी परतोंको सरल एवं दार्शनिक भाषामें खोलने में बड़े दक्ष हैं । उन्होंने अपना समस्त जीवन दर्शन एवं न्यायके ग्रन्थोंके सम्पादन एवं प्रकाशन में लगा रखा है। उनका चिन्तन मौलिक एवं युक्तियुक्त होता है । सन् १९४४ से १९८० तक ३६ वर्षके अपने दार्शनिक जीवन में उन्होंने दर्शनशास्त्रपर प्रमुख रूपसे लेखनी चलायी तथा न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, प्रमाणप्रमेयकलिका एवं स्याद्वादसिद्धि जैसे न्यायशास्त्र के ग्रंथोंका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन करके इस दिशामें यशस्वी कार्य किया है। यही नहीं, 'जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान विचार' जैसे मौलिक ग्रन्थका सृजन करके दार्शनिक क्षेत्रमें अच्छी ख्याति प्राप्त की है ।
प्रस्तुत निबन्ध में हम आपकी "जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन" पुस्तकका समीक्षात्मक अव्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं ।
"जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' डा० कोठियाके जैनदर्शनसे सम्बन्धित २४ शोधपूर्ण निबन्धों का संग्रहात्मक ग्रन्थ है । जैन दर्शनशास्त्रका इतिहास एवं उसका मौलिक दार्शनिक विवेचन, दार्शनिक आचार्य परम्परा, आचार्योंका समय निर्धारण एवं उनके ग्रंथोंके नवनीतका आस्वादन आदि इस कृतिकी मौलिक विशेषताएँ हैं । परिशीलनके अधिकांश शोध-निबन्ध सन् १९४२ से १९८० तकके लिखे हुये हैं । जब आप महापंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार के निर्देशन में जैन दर्शनपर प्रामाणिक शोधकार्य सम्पादन में संलग्न थे, उस समय जैन दार्शनिक क्षेत्रमें पं० सुखलालजी प्रज्ञाचक्षु, डा० हीरालाल जैन, डा० उपाध्ये, पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ, पं० दलसुख मालवणिया जैसे विद्वान् कार्यरत थे तथा दार्शनिक जगत में नये-नये आयाम प्रस्तुत करने में संलग्न थे ।
परिशीलनका प्रथम महावीर तक तथा महावीरके आकलन किया गया है । डॉ०
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निबन्ध " जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र" विषयक है, जिसमें ऋषभदेवसे लेकर पश्चात् ईसा २०० से १७०० तक होनेवाले जैन न्याय विकासका ऐतिहासिक कोठियाने जैन न्याय - विकासके समयका विभाजन निम्न प्रकार किया है
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