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विद्यार्थियोंको एक-दो घण्टे अतिरिक्त समय देकर उनके कोर्षकी तैयारी कराना। यह इनकी परिश्रमशीलताका प्राथमिक उदाहरण है। ___ आज वीर विद्यालय पपौरासे निकले हुए जो विद्यार्थी ऊँचे पदोंपर दिखाई देते हैं उनमें पं० गोबिन्ददासजी अहार, प्रो० उदयचन्दजी वाराणसी, पं० बाबूलालजी फागुल्ल वाराणसी, डॉ. राजारामजी आरा, श्री मलचन्दजी आयुर्वेदाचार्य शिवपुरी, पं० स्वरूपचन्दजी हस्तिनापर आदि अनेक विद्वान उस समयके इनके पढ़ाये हुए प्रथम शिष्य हैं। इस प्रकार अत्यन्त कठिनाईसे पढ़ाई करके श्रीमान्जीने न्यायाचार्य और शास्त्राचार्यकी परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। दिल्ली पहुँचनेपर एम० ए० भी इन्होंने कर लिया। एम० ए० कर लेनेसे दि० जैन कालेज बड़ौतमें इनकी संस्कृत के प्रवक्तापदपर नियुक्ति हो गई। वहाँ ये तीन वर्ष रहे।
पश्चात् हिन्दू यूनिवर्सिटीमें जैनदर्शनके प्रवक्तापदपर नियुक्ति हो गई और यहाँ रहते हुए इन्होंने पी-एच० डी० की डिग्री भी प्राप्त कर ली। इस तरह इन्होंने जहाँ अपना अध्ययन उत्तरोत्तर पूरा किया, वहाँ साहित्य साधना और समाज-सेवामें भी निष्ठापूर्वक लगे रहे।
इन्हें लेख लिखने और ग्रन्थोंका संपादन करनेकी तीव्र लालसा रही है। जैनमित्र, वीर, जैनसंदेश आदि पत्रोंमें ये लेख भेजते रहते थे। न्यायदीपिकापर कभी-कभी बचे समयमें टिप्पणी व पाठसंशोधन भी करते रहते थे । सन् ४२ में जैन गुरुकुल मथुराके प्राचार्य पदको छोड़कर श्रद्धेय : पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके सांनिध्यमें पहुंच गये । उनके सांनिध्यसे इनकी प्रतिभामें चमक आई, और अनुसंधानकी ओर रुचि बढ़ गई । परिश्रमी तो ये थे ही, 'अनेकान्त' में भी गवेषणापूर्ण लेख लिखने लगे। इससे मुख्तार सा० के अत्यन्त प्रिय हो गये, और समाजमें भी इनकी ख्याति होने लगी। वहीं रहकर न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा आदि कई ग्रन्थोंका संपादन व हिन्दी अनुवाद किया। किन्तु १९५० में एक अप्रिय घटना घटी । ये आप्तपरीक्षाको अपने पूज्य पिताजीके लिए समर्पण करना चाहते थे, किन्तु मुख्तार सा० सहमत नहीं थे। फिर इनके ज़ोर देनेपर वे सहमत हो गये। पर मुख्तार सा० ने इनकी इस सब बातको जयपुर में बाबू छोटेलालजी कलकत्ता और पं० चैनसुखदासजी जयपुरको बताई। पं० जीने 'वीरवाणी' में आप्तपरीक्षाकी समालोचना करते हुए समर्पणको भी समालोचना की। उसे पढ़कर इनके स्वाभिमानको चोट लगी। तत्काल त्यागपत्र भेजकर वीर-सेवा-मन्दिरसे अलग हो गये। फलतः कुछ दिनों तक ये खाली रहे, और जैन पुस्तक भंडार चलाने लगे । तीन महिने बाद ही 'बाल आश्रम' में 'समन्तभद्र-विद्यालय' की स्थापना करने हेतु उसके प्रधानाचार्यके पदपर वहाँ चले गये। वहाँ लगभग ८ वर्ष रहे। विद्यालयको उन्नत बनाया। किन्तु मुख्तार सा० के प्रति इनकी व्यक्तिगत श्रद्धा ज्यों-की-त्यों बनी रही। जब कभी बड़ौतसे दिल्ली जाते, तो मुख्तार सा० से अवश्य मिलकर आते थे । इसका भी फल यह हुआ कि पूज्य मुख्तार सा० ने सन् १९६० में इनके खरेपन, कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारीको देखकर इन्हें अपना धर्मपुत्र समारोहपूर्वक घोषित किया। फिर पूज्य मुख्तार सा०, पूज्य दादा डॉ० श्रीचन्द्रजी आदिके साथ इनके सम्बन्ध घनिष्ठसे घनिष्ठतम होते गये । सन् १९६८ में पूज्य मुख्तार सा० के स्वर्गवास हो जानेके बादसे भी ये वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट के साहित्यिक कार्यों में तन्मयताके साथ लगे चले आ रहे हैं।
इन्होंने अपने जीवन में अनेक बाधाओंको पार करते हए अपनी उन्नति की है। ये विनयशील, उदार, सहृदय, गुणग्राही व कत्र्तव्यपरायण आरम्भसे रहे। जिस किसी भी कार्यको हाथमें लिया. उसे लगनके साथ निस्पृह और निश्छलभावसे पूरा किया। ये कर्मठ कार्यकर्ता, प्रतिभाशाली और वक्ता है। आगत' विद्वानों तथा अतिथियोंका स्वागत व आतिथ्य करना भी ये अपना प्रमुख कर्त्तव्य समझते हैं।
मेरी भावना है कि ये अधिक-से-अधिक समय तक स्वस्थ रहें और दीर्घायु होकर समाज व सरस्वतीकी सेवा करें।
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