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________________ चलते वक्त पंडितजीने अपनी सम्पादित कृति आचार्य विद्यानन्दकी 'प्रमाण-परीक्षा' मुझे भेंटमें दी । निःसन्देह उनकी यह रचना जैन दर्शनके अभ्यासियोंके लिए बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है । उत्तरप्रदेश, शासनने उन्हें इस रचनापर पुरस्कृत एवं सम्मानित किया है । पंडितजी विद्वान् तो हैं ही, अनेक ग्रन्थोंकी रचना एवं सम्पादन करनेके कारण उच्चकोटिके साहित्यकार भी हैं। डॉ० कोठियाकी विशेषता यह है कि कई शिक्षण-संस्थाओं और सामाजिक समितियोंको उन्होंने अपनी सेवायें दी है। जैन सन्देश और अनेकान्त जैसे साप्ताहिक, मासिक पत्रोंके सम्पादनमें विशिष्ट सहयोग दिया है। समाज और शासनने उनकी सेवाओंका मूल्यांकन किया है और उन्हें मानद उपाधियों तथा सम्मानोंसे विभूषित किया है। मेरी हार्दिक शुभकामनायें हैं कि पंडितजी चिरायु हों और चिरकाल तक जैन विद्या और जैन समाजकी सेवा करते रहें। उनका जीवन : एक खुली पुस्तक श्री नेमीचन्द पटोरिया, श्रीमती रतनप्रभा जैन, बम्बई एक आये, दो आये, ऐसे पचास वर्ष चुपचाप आये, और हर वर्ष सहर्ष आपका सहज स्नेह-रस हमे उपहारमें देते गये । हम पास रहे या दूर रहे, पर यह स्नेह-रस हमें अजस्र मिलता रहा। सच तो यह है कि आपका स्नेह 'बिना-रस' न रहा, वह सदा 'बनारस' ही रहा। हमें मालूम है कि आप अपनी प्रज्ञा और पौरुषके बलपर तलैटीसे शिखरपर पहुँच गये । हम टुकुरटुकुर देखते ही रहे, और जहाँके तहाँ ही खड़े रहे। फिर भी आपका व्यवहार व स्नेह पूर्ववत् ही रहा । उसे अब हमारी जरावस्था में जरा भी अव्यवस्था न आने देंगे, ऐसी आशा है । कहावत है कि 'किसीका मुँह चलता है, और किसीके हाथ चलते हैं' । किन्तु आपने इस लोक-कहावतको ही झुठला दिया है । आपका मुँह भाषण व संभाषणमें खूब चलता है, और साथ ही लेखनी थामकर आपके हाथ भी खूब चलते हैं । कितने ढेर कागज रंग डाले ! बोसों ग्रन्थ लिखित, सम्पादित व अनुवादित हो गये । तुम्हारी कलम और कलामका कमाल जबर्दस्त है । और शोर है कि आपका 'पद' बहत बड़ा हो गया है। मैंने पढ़ा था कि 'बद्धिमानका तो सिर बड़ा होता है, पद नहीं।' मैं इससे असमंजसमें था। मेरे पड़ौसीने मेरी असमंजसता निकालकर कहा कि श्री कोठियाजीका चामका पद नहीं, शुभ नामका, सम्मानका, स्वाभिमानका पद बढ़ा है। तब समझा कि क्यों लोग अपनी 'पद-उन्नति' के पोछे पागल हो दौड़ते फिरते हैं। -८० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012020
Book TitleDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherDarbarilal Kothiya Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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