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करना, दरबारीलालके व्यक्तित्वका ऐसा गुण है जिसने उन्हे जीवन में वह सब कुछ दिलाया, जिसकी उन्होंने कामना की।
पढ़नेकी धन समाई तो अभावोंकी पीड़ा और अर्जनके प्रलोभन उन्हें प्रभावित नहीं कर पाये । 'न्यायाचार्य' होकर भी उनकी यह पिपासा शान्त नहीं हुई। बुढ़ापेकी कगारपर बैठकर उन्होंने अपने नाम को पी-एच०डी० से अलंकृत किया । संस्थाओंकी सेवा करने के क्षेत्रमें उनका यही गुण उन्हें सफलता दिलाता रहा । मुझे अच्छी तरह याद है कि उन्होंने श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमालाको किस दयनीय स्थितिसे उठाया और कहाँ पहुँचा दिया। ग्रन्थमालाकी "स्थायी सदस्य योजना के पीछे कोठियाजी ने न केवल अपने प्रभावका बल्कि अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों और अपनी विद्वत्ताका भी पूरा-पूरा उपयोग करके उसका प्रचार प्रसार किया । वास्तव में वह स्थायी-सदस्य योजना ही थी, जिसने वर्णी ग्रंथमालाको स्थायित्व और उपयोगिताकी दिशामें बहुत आगे बढ़ाया । यह एक विडम्बना ही है कि बहुत छोटो, बहुत संकीर्ण भावनाओं के पोषणके लिए कुछ लोगोंने कोठियाजीको ग्रन्थमाला छोड़नेकी परिस्थितियोंका निर्माण किया। उनके हटते ही उस महान् संस्थाकी गरिमा, सक्रियता और प्रामाणिकता एक साथ विलीन हो गई । अब वर्षों तक संस्थाकी बैठक भी नहीं होती, प्रकाशन होने और स्थायी ग्राहकोंको उनकी प्रतियाँ भेंट करनेका काम तो बहत दूर, सपनेकी सी बात दिखाई देने लगा है। हमारे देखते-देखते, योग्यताविहीन हाथोंमें जाते हो एक जीतीजागती संस्था दीर्घ निद्रामें डूब गई ।
वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट उनके हाथमें आनेपर कितने लोगोंने कितने प्रकारकी बातें कहीं। परन्तु ट्रस्ट के अत्यन्त सीमित साधनों के द्वारा भी कई सराहनीय प्रकाशन प्रस्तुत करके कोठियाजीने सिद्ध कर दिया कि संस्थाको सम्पत्तिकी प्रचुरता नहीं, व्यक्तिकी लगन चलाती है।
डा० कोठियाको बहुत निकटसे जाननेका मुझे अवसर मिला है । मैंने प्रायः अनुभव किया है कि अग्रिम पंक्तिका अधिकारी यह मनीषी अपनी सादगीके कारण हमेशा पीछेकी पंक्तिमें बैठाया गया । अवसरपटु लोग उसीके कन्धेपर पाँव रखकर आगेकी पंक्ति तक पहुँचते रहे, परन्तु उसके चेहरेपर कभी खिन्नता नहीं आई। अपनी ही जेबमें विजयलेख रखकर बैठा हुआ यह व्यक्ति "दुरभिसन्धि-विशारदों"की जोड़-तोड़से पराजित घोषित किया जाता रहा। पर उसने कभी अपने-आपको हताश या निराश अनुभव नहीं किया। अपनत्वका मुखौटा लगाकर जिन्होंने उसके साथ "पग-बाधा"के दाँव खेले, सबकुछ जानते हुए भी उस निरीह व्यक्तिने उनका मुखौटा उतारनेके प्रयत्न नहीं किये ।
कालके दुष्प्रभावसे आज जब अनेक बड़े-बड़े विद्वानोंकी लेखनी बन्धक हो गई है, या सरेआम नीलाम पर चढ़ रही है, तब "लूट सके सो लूट" के इस माहौल में भी कोठियाजीने अपनी प्रामाणिकताको कोई लांछन नहीं लगने दिया। यश, ख्याति और लाभका कैसा भो प्रलोभन उन्हें “जिनवाणो माता''के प्रति अनास्थाके पंकमें नहीं ढकेल पाया । पूज्य वर्णीजीकी नम्र निस्पह किन्तु निर्भीक और निष्कम्प विचार-पद्धतिको उन्होंने पूरी ईमानदारीके साथ बार-बार दोहराया और अपने जीवन पर उतारा। इसे मैं डा० कोठियाकी इतनी बड़ी सफलता मानता हूँ कि बार-बार मेरा मन इसके लिये उन्हें बधाई देना चाहता है।
जैन न्यायके सूक्ष्म चिन्तन-विश्लेषणकी, सिद्धान्तके तल-स्पर्शी ज्ञान और तुलनात्मक अध्ययनकी, कर्तव्य के प्रति निष्ठा और लगनकी तथा सादा जीवन उच्च विचारकी जो पावन त्रिवेणी डा० कोठियाके अन्तरंगमें प्रवाहित है, वह किसी एक घाटपर, किसी एक व्यक्तित्वमें, अन्यत्र कहीं मिलना असंभव भले न हो, पर असंभव-सा ही है।
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