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आपकी समाज सेवा भी बहत है। दो युग तक शिक्षा-संस्थाओं, विद्यालयों और कालेजोंमें अध्यापन कार्य किया। अनेक संस्थाओं, अधिकतर शिक्षण-सस्थाओंके पदाधिकारी रहें और आज भी हैं। उनके विकासमें आपका प्रशंसनीय योगदान रहा है, कई गोष्ठियोंमे आपके शोधपत्र प्रशंसनीय रहे हैं । आप बड़े सरल स्वभावी हैं, कईबार आपसे मिलना हुआ तो कुछ-न-कुछ नवीन जानकारी मिली, पत्रव्यवहार तो चलता ही रहता है।
ऐसे कर्मठ विद्वानके अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशनका आयोजन आवश्यक और प्रशंसनीय है । डॉ. कोठिया साहबका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए कामना करते हैं कि आप स्वस्थ दीर्घ जीवन यापन करते हुए भारतीको सेवामें इसी प्रकार लगे रहें।
जीवन मूल्योंके प्रति आस्थावान
श्री यशपाल जैन, देहली पंडित दरबारीलालजी कोठियासे जब-जब मिलना हुआ है, अथवा होता है, बड़े आनंदकी अनुभूति होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनकी आस्था उन मूल्योंमें है, जो मुझे प्रिय है । उन्होंने अपने परिश्रमसे उच्च-से-उच्च ज्ञानका अर्जन किया है। उसका महत्व है; लेकिन उससे भी अधिक महत्व इस बातका है कि वह ज्ञानके बोझसे दबे नहीं है। उनके जीवन में आज भी सरलता और हृदयमें तरलता बनी
__ थह इसलिए सम्भव हो सका है क्योंकि उन्हें संस्कारिता विरासतमें मिली है और उनके जीवनका विकास धर्मके अधिष्ठान पर हुआ है।
उनका जन्म मध्य प्रदेशके एक छोटे-से स्थानपर हुआ था। उनके पिता धर्मानुरागी थे। शिक्षा-प्रेमी थे। व्यक्तित्वके धनी थे। अपने कालके पंडितोंमें उनकी गणना होती थी। उन्होंने अपने इकलौते बेटेको भरपुर धार्मिक संस्कार दिया। उनकी आकांक्षा थी कि बालक जीवनमें खब उन्नति करे और अपने कुलको मर्यादामें चार चांद लगावे; किन्तु अपनी आकांक्षाकी पूर्ति वह अपने जीवन-कालमें नहीं देख सके । बालक छः वर्षका हआ कि उसपरसे पिताका साया हट गया। कुछ समय बाद मां भी चली गई । संकटकी उस घड़ीमें उन्हें सहारा मिला अपने मामासे । अपने पास रखकर उन्होंने बालकको लाड़-प्यार दिया और उनकी पढ़ाई-लिखाई कराई।
व्यक्तिमें लगन हो तो उसके लिए आगे बढ़नेके रास्ते खुलते रहते हैं, विकासके अवसर मिलते रहते हैं । दरबारीलालजीमें उच्च शिक्षा प्राप्त करनेकी अदम्य लालसा थी। उसीके फलस्वरूप उन्होंने विशारद, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायाचार्य आदिको परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। इतना ही नहीं, उन्होंने एम० ए० की परीक्षा भी पास की और आगे चलकर उन्हें 'जैन-तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार' विषयपर काशी विश्वविद्यालयसे पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त हुई।
इस बीच उन्होंने अनेक स्थानोंपर अध्यापनका कार्य किया। काशी विश्वविद्यालयमें जैनदर्शनके प्राध्यापक रहे और अन्तमें सात वर्ष तक 'जैन-बौद्धदर्शन' के रीडरके रूपमें काम करके अवकाश ग्रहण किया।
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