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एक अन्वयके रूपमें गोलाराड़ कहा गया है वही गोल्लदेश है या अन्य कोई, यह भी विचारणीय है। मेरे ख्यालसे ये दोनों नाम एक ही प्रदेशके वाची होने चाहिए।
सीकरसे 'चारित्रधर्मप्रकाश' नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। उसके अन्तमें मूल संघ नन्दिआम्नायकी एक पट्टावलि मुद्रित की गई है । उसमें इस पट्ट के आचार्यों में सर्वप्रथम १२ वें क्रमांकपर गोलापूर्व अन्वयमें उत्पन्न हुए गुणनन्दिका नाम अंकित है जो वि० सं० ३५ 3में इस पट्टके पट्टधर आचार्य हो गये हैं । इसके संकलनका आधार नागौरके शास्त्रभण्डारमें पाई जानेवाली प्राचीन पट्टावलि ही है।
इण्डियन एन्टीक्वेरीके आधारपर स्व०प्रिय बन्धु डा० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्यने भी 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' भाग ४ प०४४१ में नन्दिसंघकी पावलिके आचार्योंकी नामावलि प्रकाशित की है। उसमें भी उक्त संघके पट्टधर आचार्योंकी परम्परामें क्रमांक १२ पर गुणनन्दिका नाम आया है । उसके अनुसार ये वि० सं० ३५८ में पट्टपर आरूढ़ हुए थे। यद्यपि 'चरित्रसार में दी हुई पट्टावलिके अनुसार इनके पट्टपर बैठनेका समय वि० सं० ३५५ है । अतः इस हिसाबसे इन दोनों पट्टावलियोंमें ३ वर्षका अन्तर आता है जो नगण्य है। इस पट्टावलिके अनुसार ये दक्षिण देशस्थ भद्दलपुरके पट्टाधीश थे। जैसाकि हम पूर्वमें संकेत कर आये है, उक्त पट्टावलिमें इनको गोलापूर्व अन्वयमें उत्पन्न कहा गया है। इससे ऐमा प्रतीत होता है कि पहले कभी दक्षिण देश ही इस अन्वयका मूल निवास रहा है । और वहींसे आकर इस अन्वयके वंशधर बुंदेलखण्डके महोवा सम्भागमें आकर बसते गये हैं । मेरे ख्यालसे दक्षिणके जिस प्रदेशमें इस अन्वयका पूर्वकालमें निवास रहा है वही गोल्लदेश होना चाहिये । और इस प्रकार गोलाराड, गोलापूर्व और गोलभंगार इन तीनों अन्वयोंके वंशधर वहींसे आये हों, तो यह भी सम्भव दिखाई देता है। अतः गोल्लदेश
और गोलाराड़ इन दोनोंको एक ही देशका मान लेने में भी कोई बाधा नहीं दिखाई देती । ऐतिहासिक पुरुष इसपर विचार करें।
इस अन्वयके जो नामांकित प्रमुख विद्वान इस समय धर्म और समाज की सेवामें रत हैं उनमें श्री डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्यका न्यायशास्त्रको दृष्टि से प्रमुख स्थान है। ये श्री स्याद्वाद-महाविद्यालयके अपने कालके प्रमुख छात्रों में से एक हैं । इनके अध्ययन और परिशीलन करनेका प्रमुख विषय दर्शन और न्याय रहा है ।
जिस समय ये इस विद्यालयमें अध्ययन करते थे उस समय स्व० श्री डा. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य जैन न्यायगद्दीको सुशोभित कर रहे थे। इन्होंने जैन दर्शनका अध्ययन तो इन्हींसे किया है। किन्तु न्यायशास्त्रका अध्ययन इन्हें स्व० श्री पं० उग्रानन्द झा एवं आनन्द झाके सन्निकट करनेका सौभाग्य प्राप्त हआ है।
यद्यपि सर्वप्रथम इन्होंने नव्यन्यायको अपने अध्ययनका विषय बनाया था। किन्तु मध्यमा परीक्षामें उत्तीर्ण होनेके बाद न्यायाचार्य होनेके लिये इन्होंने प्राचीन न्यायके रूपमें विषयको बदल दिया था। प्राचीन न्यायका अध्ययन करते समय इन्हें जिन प्रमुख ग्रन्थोंके परिशीलन करनेका सुअवसर मिला है उनमें कतिपय प्रमुख ग्रन्थ हैं
प्रशस्तपादभाष्य, न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका, कुसुमाञ्जलि, न्यायमञ्जरी आदि । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शनके तो ये निष्णात विद्वान हैं ही। अजैन न्यायमें भी इन्होंने पर्याप्त निपुणता प्राप्त की है। मुझे स्वयं १-२ माह इनके साथ अष्टसहस्रीके प्रारम्भिक कुछ भागके स्वाध्याय
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