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स्वप्रेयसी लोहितमूर्तिमावहन्
किन्तु उनका यमक न केवल दुहरूता से मुक्त है अपितु इससे कठोरपादैनिजघान तापनः ॥ २।४२ प्रकृति वर्णनों की प्रभावशालिता में वृद्धि हुई है। निम्नलिखित पद्य में लताओं को प्रगल्भा नायिकाओं सौन्दर्य चित्रण-कीर्तिराज ने काव्य के कतिपय के रूप में चित्रित किया गया है जो पुष्पवती होती हुई भी पात्रों के कायिक सौन्दर्य का हृदयहारी चित्रण किया है, तरुणों के साथ बाह्य रति में लीन हो जाती हैं। परन्तु उनकी कला की सम्पदा राजीमती तथा देवांगनाओं
कोमलाङ्गयो लताकान्ताः प्रवृत्ता यस्य कानने। के चित्रों को ही मिली है। सौन्दर्य-चित्रण में अधिकतर पुष्पवत्योऽन्यहो चित्रं तरुणालिङ्गनं व्यधुः ॥ १।३१ नखशिखप्रणाली का आश्रय लिया गया है जिसके अन्तर्गत
कतिपय स्थलों पर प्रकृति का आदर्श रूप चित्रित वय पात्र के अंगों-प्रत्यंगों का सूक्ष्म वर्णन किया जाता किया गया है। ऐसे प्रसंगों में प्रकृति निसर्गविरुद्ध आच- है। कवि ने बहुधा परम्परामुक्त उपमानों के द्वारा अपने रण करती है। जिनजन्म के अवसर पर प्रकृति ने अपनी पात्रों का सौन्दर्य व्यक्त किया है किन्तु उपमानयोजना में स्वभावगत विशेषताओं को छोड़ कर आदर्श रूप प्रकट उपमेय-सादृश्य का ध्यान रखने से उनके सौन्दर्य चित्रों में किया है।
सहज आकर्षण तथा सजीवता का समावेश हो गया है। सपदि दशदिशोऽत्रामेयनमल्यमापुः
जहाँ नवीन उपमानों का प्रयोग किया गया है वहाँ काव्यसमजनि च समस्ते जीवलोके प्रकाशः ॥
कला में अद्भत भावप्रेषणीयता आ गयी है। निम्नोक्त पद्य अपि ववुरनुकूला वायत्रो रेणुवर्ज
में देवांगनाओं की जघनस्थली को कामदेव की आसनगद्दी विलयमगमदापद् दौस्थ्यदुःखं पृथिव्याम् ॥ ३॥३९ कह कर उसकी पुष्टता तथा विस्तार का सहज भान करा प्रकृतिचित्रण में कात्तिराज ने परिगणनात्मक शैलो ।
दिया गया है। का भी आश्रय लिया है। निम्नोक्त पद्य में विभिन्न वक्षों वृता दुकूलेन सुकोमलेन विलग्नकाञ्चीगुणजात्यरत्ना ।
विभाति यासां जघनस्थली सा मनोभवस्यासनगन्दिकेव ।। के नामों की गणना मात्र कर दी है। सहकारएष खदिरोऽयमजुनोऽयमिमौ पलाशबकुलो सहोद्गता ।
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इसी प्रकार राजीमती की जंघाओं को कदलीस्तम्भ कुट जावमू सरल एष चम्पको मदिराक्षि शेलविपिन गवेष्यताम ॥
तथा कामगज के आलान के रूप में चित्रित करके एक ओर १२।१३
उनकी सुडौलता तथा शीतलता को व्यक्त किया गया है तो काव्य में एक स्थान पर प्रकृति स्वागत कत्र के रूप में
दूसरी ओर, उनकी वशीकरण क्षमता को उजागर कर दिया प्रकट हुई है।
गया है। रचयितुं ह्य चितामतिथिक्रियां पथिकमा ह्वयतोव सगौरवम् ।
बभावुरूयुगं यस्याः कदलीस्तम्भकोमलम् । कुसुमिता फलिताम्रवणावली सुवयसां वयसां कलकूजितः ॥
आलान इव दुर्दान्त-मीनवे तनहस्तिनः ॥ ६५५ ८१८
नेमिनाथ महाकाव्य में उपमान की अपेक्षा उपमेय इस प्रकार कीर्तिराज ने प्रकृति के विविध रूपों का अंगों का वैशिष्ट्य बताकर, व्यतिरेक के द्वारा भी पात्रो चित्र किया है । ह्रापालोन संस्कृत महाकाव्यकारों को का लोकोत्तर सोन्दर्य चित्रित किया गया है। राजीमतो की भाँति उन्होंने प्रकृति चित्रग में यमक की योजना को है मुखमाधुरी से परास्त लावण्यनिधि चन्द्रमा को, लग्नावश
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