SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिक सफल नहीं कहा जा सकता । पग-पग पर प्रासंगिक- नेमिनाथमहाकाव्य में प्रयुक्त अप्रासंगिक वर्णनों के सेतु बांध देने से काव्य की कथावस्तु कतिपय काव्य-रूढ़ियाँ रुक-रुक कर, मन्दगति से आगे बढ़ती है । वस्तुतः, कथानक संस्कृत महाकाव्यों की रचना एक निश्चित ढर्रे पर की ओर कवि का अधिक ध्यान नहीं है । काव्य का अधिकतर हुई है जिससे उनमें अनेक शिल्पगत समानताए दृष्टिगम्य भाग वर्णनों से ही आच्छन्न है। कथावस्तु का सूक्ष्म संकेत होती हैं। शास्त्रीय मानदंडों के निर्वाह के अतिरिक्त उनमें करके कवि तुरन्त किसी-न-किसी वर्णन में जुट जाता है। कतिपय काव्यरूढ़ियों का मनोयोगपूर्वक पालन किया गया कथानक की गत्यात्मकता का अनुमान इसी से किया जा है। यहाँ हम नेमिनाथ महाकाव्य में प्रयुक्त दो रूडियों सकता है कि तृतीय सर्ग में हुए पुत्रजन्म की सूचना समुद्र- की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक विजय को सातवे सर्ग में मिलती है । मध्यवर्ती तीन सर्ग शिशु समझते हैं क्योंकि इनका काव्य में विशिष्ट स्थान है तथा के सूतिकर्म, जन्माभिषेक आदि के विस्तृत वर्णनों पर व्यय ये इन रूढ़ियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिये रोचक सामग्नो कर दिये गये हैं। तुलनात्मक दृष्टि से यहां यह जानना प्रस्तुत करती हैं। प्रथम रूढ़ि का सम्बन्ध प्रभात वर्णन से रोचक होगा कि रघुवंश में द्वितीय सर्ग में जन्म लेकर रघु है। प्रभात वर्णन की परम्परा कालिदास तथा उनके चतुर्थ सर्ग में दिग्विजय से लौट भी आता है। द्वितोय सर्ग परवर्ती अनेक महाकाव्यों में उपलब्ध है। कालिदास का में प्रभात का तथा अष्टम में षडऋतु का विस्तारपूर्वक प्रभात वर्णन आकार में छोटा होता हुआ भी मार्मिकता में वर्णन किया गया है। काव्य के शेषांश में भी वर्णनों का बेजोड़ है। माघ का प्रभातवर्णन बहुत विस्तृत है, यद्यपि बाहुल्य है। इस वर्णनप्राचुर्य के कारण काव्य को अन्विति प्रातःकाल का इस कोटि का अलंकृत वर्णन समूचे साहित्य खण्डित हो गयी है। काव्य के अधिकांश भाग मल कथा- में अन्यत्र दुर्लभ है। अन्य काव्यों में प्रभातवर्णन के नाम वस्तु के साथ सूक्ष्म-तन्तु से जुड़े हुए हैं। इसलिये काव्य का पर पिष्टपेषण ही हुआ है। कीतिराज का यह वर्णन कुछ कथानक लंगड़ाता हुआ ही चलता है। किन्तु यह स्मरणीय विस्तृत होता हुआ भी सरसता तथा मार्मिकता से परिपूर्ण है कि तत्कालीन महाकाव्य-परिपाटी ही ऐसी थो कि है। माघ की भाँति उसने न तो दूर को कौड़ो फैकी है मूल कथा के सफल विनियोग की अपेक्षा विषयान्तरों को और न वह ज्ञान-प्रदर्शन के फेर में पड़ा है। उसने तो, पल्लवित करने में हो काव्यकला को सार्थकता मानी जाती कुशल चित्रकार की तरह, अपनी ललित-प्रांजल शैली में थी। अत: कातिराज को इसका पारा दोष देना न्याय्य प्रातःकालीन प्रकृति के मनोरम चित्र अंकत करके तत्कानहीं। वस्तुतः, उन्होंने वस्तुव्यापार के इन वर्णनों को लोन सहज वातावरण को अनायास उजागर कर दिया है। अपनो बहुश्रुतता का क्रीडांगन न बना कर तत्कालीन मागधों द्वारा राजस्तुति, हाथी के जाग कर भी मस्ती के काव्यरूढ़ के लोहपाश से बचने का इलाध्य प्रयत्न कारण आंखे न खोलने तथा करवट बदल कर शृङ्खलारव किया है। करने ३ और घोड़ों के द्वारा नमक चाटने की रूढ़ि का भी २ ध्याने मनः स्वं मुनिभिविलम्बितं. विलम्बितं कर्कशरोचिषा तमः । सुष्वाप यस्मिन् कुमुदं प्रभासितं, प्रभासितं पङ्कजबान्धवोपर्लः ॥ २१४१ ३ निद्रासुखं समनुभूय चिराय रात्रावुद्भूतशृङ्खलारवं परिवर्त्य पार्श्वम् ।। प्राप्य प्रबोवमपि देव ! गजेन्द्र एष नोन्नोलयत्यलसनेत्रयुगं मदान्धः ।। २।५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012019
Book TitleManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherManidhari Jinchandrasuri Ashtam Shatabdi Samaroh Samiti New Delhi
Publication Year1971
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy