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कविपरिचय तथा रचनाकाल
कीर्तिराज के
अन्य अधिकांश जैन काव्यों की भाँति नेमिनाथमहाकाव्य में कवि प्रशस्ति नहीं है । अतः काव्य से उनके जीवन तथा स्थितिकाल के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता । अन्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर उनके जीवनवृत्त का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया गया है । उनके अनुसार कीर्तिराज अपने समय के प्रख्यात तथा प्रभावशाली खरतरगच्छीय आचार्य थे । वे संखवालगोत्रीय शाह कोचर के वंशज देपा के कनिष्ठ पुत्र थे । उनका जन्म सम्वत् १४४९ में देपा की पत्नी देवलदे की कुक्षि से हुआ । उनका जन्म नाम देल्हाकुंवर था । देल्हाकुंवर ने चौदह वर्ष की अल्पावस्था में, सम्वत् १४६३ की आषाढ़ दि एकादशी को दीक्षा ग्रहण की। जिनवर्द्धनसूरि ने आपका नाम कीर्तिराज रखा । कीर्तिराज के साहित्यगुरु भी जिनवर्द्धनसूर ही थे । उनकी प्रतिभा तथा विद्वत्ता से प्रभावित होकर जिनवर्द्धनसूरि ने सम्वत् १४७० में वाचनाचार्य पद तथा दस वर्ष पश्चात् जिनभद्रसूरि ने उन्हें मेहवे मैं उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया । पूर्व देशों का विहार करते समय जब कीर्तिराज जैसलमेर पधारे, तो गच्छनायक जिनभद्रसूरिने योग्य जानकर उन्हें सम्वत् १४६७ की माघ शुक्ला दशमी को आचार्य पद प्रदान किया। तत्पश्चात् वे कीर्तिरत्नसूर के नाम से प्रख्यात हुए। आपके अग्रज लक्खा और केल्हा ने इस अवसर पर पद-महोत्सव का भव्य आयोजन किया । कीर्तिराज ७६ वर्ष की प्रौढ़ावस्था में, पश्च्चीस दिन की अनशन-आराधना के पश्चात् सम्वत् १५२५ वैशाख बदि पंचमी को वीरमपुर में स्वर्ग सिधारे। संघ ने वहां पूर्व दिशा में एक स्तूप का निर्माण कराया जो अब भी विद्यमान है । वीरमपुर, महवे के अतिरिक्त जोधपुर,
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आबू आदि स्थानों में भी आपकी चरणपादुकाएं स्थापित की गयीं । जयकीर्ति और अभयविलासकृत गीतों से ज्ञाल होता है कि सम्वत् १८७९, वैशाख कृष्ण दशमी को गड़ाले ( बीकानेर का समीपवर्ती नालग्राम ) में उनका प्रासाद बनवाया गया था । कीर्तिरत्नसूरि के ५१ शिष्य थे । नेमिनाथ काव्य के अतिरिक्त उनके कतिपय स्तवनादि भी उपलब्ध हैं । '
नेमिनाथ महाकाव्य उपाध्याय कीर्तिराज की रचना है । कीर्तिराज को उपाध्याय पद संवत् १४८० में प्राप्त हुआ और सं० १४६७ में वे आचार्य पद पर आसीन होकर कीर्त्तिरत्नसूरि बने । अतः नेमिनामकाव्य का रचनाकाल संवत् १४८० तथा १४६७ के मध्य मानना सर्वथा न्यायोचित है । सं० १४९५ की लिखी हुई इसकी प्राचीनतम प्रति प्राप्त है और यही इसका रचनाकाल है । कथानक
नेमिनाथ महाकाव्य के बारह सर्गों में तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवनचरित निबद्ध करने का उपक्रम किया गया है । कवि ने जिस परिवेश में जिनचरित प्रस्तुत किया है, उसमें उसकी कतिपय प्रमुख घटनाओं का ही निरूपण सम्भव हो सका है।
च्यवनकल्याणक वर्णन नामक प्रथम सर्ग में यादव राजसूर्यपुरा में समुद्र विजय की पत्नी, शिवादेवी के गर्भ में बाईसवें जिनेश के अवतरण का वर्णन है । अलंकारों के विवेकपूर्ण योजना तथा बिम्बवैविध्य के द्वारा कवि सूर्यपुर का रोचक कवित्वपूर्ण चित्र अंकित करने में समर्थ हुआ है । द्वितीय सर्ग में शिवादेवी परम्परागत चौदह स्वप्न देखती है । समुद्रविजय स्वप्नफल बतलाते हैं कि इन स्वप्नों के दर्शन से तुम्हें प्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी जो अपने भुजबल
१ विस्तृत परिचय के लिये देखिये श्री अगरवन्द नाहटा तथा भंवरलाल नाहटा द्वारा सम्पादित 'ऐतिहासिक जैन
काव्यसंग्रह', पृ० ३५-४०
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