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विषवमन किया और सुविहित शिरोमणि नवाङ्ग वृतिकर्ता सं० १६२४ का चौमासा नाडोलाई किया, मुगल अभयदेवसूरि खरतरगच्छ में नहीं हुए, खरतरगच्छ की सेना के भय से सभी नागरिक इतस्ततः नगर छोड़कर उत्पत्ति बाद में हुई, यह गलत प्ररूपणा की; क्योंकि भागने लगे। सूरि महाराज उपाश्रय में निश्चल ध्यान में अभयदेवसूरि जी सर्वगच्छ मान्य महापुरुष थे और उन्हें बैठे रहे, जिसके प्रभाव से मुगल सेना मार्ग भूलकर अन्यत्र खरलरगच्छ में हुए अमान्य करके ही वे अपनी चित्त- चली गई । लोगों ने लौटकर सूरिजी के प्रत्यक्ष चमत्कार को कालुष्यवृत्ति-खण्डनात्मक दुष्प्रवृत्ति की पूर्ति कर सकते थे। देखकर भक्ति भाव से उनकी स्तवना की।
जब उनकी यह दुष्प्रवृत्ति प्रकाश में आई तो श्रीजिन- सं० १६२५ बापेऊ, १६२६ बीकानेर, सं० १६२७ का चन्मसूरिजो ने उसका प्रबल विरोध किया और धर्म सागर चातुर्मास महिम करके आगरा पधारे और सौरीपुर, उपाध्याय को समस्त गच्छाचार्यों की उपस्थिति में कार्तिक चन्द्रवाड़, हस्तिनापुरादि तीर्थो की यात्रा की। सं० १६२८ सुदि ४ के दिन शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया। पर वे का चातुर्मास आगरा कर १६२६ का रोहतक किया। पंचासरापाड़ा की पोशाल में छिप बैठे। दूसरी बार सं० १६३० के बीकानेर चातुमसि में प्रतिष्ठा व व्रतोकार्तिक सदि ७ को फिर धर्मसागर को बुलाया पर उनके न चारण आदि धर्म कृत्य हए । सं०१६३१-३२ का चातुर्मास भी आने पर चौरासी गच्छ श्रीका-गीतार्थो के समक्ष अभय- बीकानेर हआ। सं० १६३३ में फलौधी पार्श्वनाथ तीर्थ के देवसूरि के खरतरगच्छ में होने के विविध प्रमाणों सहित तालों को हाथ समर्श से खोल कर तीर्थ दर्शन किया । फिर 'मतपत्र' लिखा गया और उसमें समस्त गच्छाचार्यो की सही जेसलमेर चातुर्मास कर गेली श्राविका'दको ब्रतोच्चारण कर. कराके उत्सत्रभाषी धर्मसागर को निह्नव प्रमाणित कर जैन वाये । तदनन्तर देरावर पधारे और कुशल गरु के स्वर्गस्थान संघ से बहिष्कृत कर दिया गया।
की यात्रा कर वहीं चातुर्मास किया । १६३५ जेसलमेर, सं० इस प्रकार पाटण में पुनः शास्त्रार्थ विजय की सुवि हत
१६३६ बीकानेर, सं० १६३७ सेरूणा, सं० १६३८ बीकानेर पताका फहरा कर सूरिजी खभात पधारे। सं० १६१८ का
सं० १६३६ जेसलमेर, सं० १६४० आसनी कोट में चातुर्मास चातुर्मास करके सं० १६१६ में राजनगर-अहमदावाद पधारे ।
करके जेसलमेर पधारे । माघ सुदी ५ को अपने शिष्य महिमराज यहां मंत्रीश्वर सारंगधर सत्यवादी के लाये हुए विद्वत्ताभिमानी
जी को वाचक पद से अलंकृत 'कया। सं०१६४१ का चातुर्मास भट्ट की समस्यापूर्ति कर उसे परास्त किया। सं० १६२०
करके पाटण पधारे । सं० १६४२ का चातुर्मास कर शास्त्रार्थ का चातुर्मास बीसलनगर और सं० १६२१ का चातुर्मास
में विजय प्राप्त की । सं० १६४३ का चौमासा अहमदाबाद बीकानेर में किया। सं० १६२२ वै० शु० ३ को प्रतिष्ठा
कर के धर्मसागर के उत्सूत्रात्मक ग्रन्थों का उच्छेद किया। कराके चातुर्मास जेसलमेर किया। बीकानेर के मंत्री
सं० १६४४ में खंभात चातुर्मासकर अहमदाबाद पधारे सघपति संग्राम सिंह ने नागौर के हसनकुलोखान पर सन्धि-विग्रह सोमजी साह के संव सहित शत्रुञ्जयादि तीर्थों की यात्रा में जय प्राप्त कर सरि महाराज का प्रवेशोत्सव कराया। की। सं० १६४५ सूरत, स. १६४६ अहमदाबाद पधार सं. १६२२.२३ के चातुर्मास जेसलमेर में बिताकर खतासर और विजयादशमी के दिन हाजापटेल की पोल स्थिा। के चौपड़ा चांपसी-चांपलदे के पुत्र मानसिंह को मार्गशीर्ष
शिवा सोमजी के शांतिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा बडो कृ० ५ को दीक्षित किया । इनका नाम 'महिमराज' रखा, जो आगे चलकर सरि महाराज के पट्टधर श्रीजिन सिंहसरि नाग धूम-धाम से की। मन्दिर में ३१ पक्तियों का शिलालेख से प्रसिद्ध हुए।
लगा हुआ है एवं एक देहरी में संखवाल गोत्राय श्रावको
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