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गच्छ के साधुओं की कृपा का फल था । गच्छ के नेता जिनभद्रसूरि थे, इसलिए उनपर इनका अनुराग और सद्भाव स्वभावतः ही अधिक था । इन दोनों भाइयों ने अपने-अपने ग्रन्थों में इन आचार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
इन श्राताओं ने जिनभद्रसूरि के उपदेश से एक विशाल सिद्धान्तकोश लिखवाया था । यह सिद्धान्तकोश आज विद्यमान नहीं। पाटण के भण्डार में भगवतीसूत्र की प्रति मंडन के सिद्धान्तकोश की है । इस प्रति के अन्त में मण्डन की प्रशस्ति है ।
भद्रसूरि ने विद्वत्ता के प्रमाण में ग्रन्थों की रचना की है ऐसा प्रतीत नहीं होता । इनका बनाया हुआ एक ग्रन्थ मेरे दृष्टिगोचर हुआ है, इसका नाम 'जिनसत्तरी प्रकरण है। यह प्राकृत में गाथाबंध है। इसकी कुल
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गावाऍ २२० हैं। इसमें २४ तीर्थंकरों के पूर्वभव संख्या, द्वीपक्षेत्र, विजय नगर, नाम और आयु आदि ७० बातों की सूची है ।
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जिनभद्रसूरि का शिष्य समुदाय बड़ा और प्रभावशाली था ।
जिनभद्रसूरि की एक पाषाणमय मूर्ति जोधपुर राज्य के खेड़गढ़ के पास जो नगर गांव है, वहां के मूमिगृह में स्थापित है । यह मूर्ति उकेश वंश के कायस्थकुल वाले किसी श्रावक ने संवत् १५१२ में बनवायी थी ।
जिनभद्रसूरि बहुत भाग्यवान और तेजस्वी थे।
आचार्य प्रवर श्रीजिनभरि जी के हाथ की लिखी हुई सुन्दरों अक्षरों वाली एक प्रति कलकत्ता के श्री पूरणचंद नाहर के संग्रह में हमारे अवलोकन में आई जो सं० १५११ आषाढ़ बदि १४ बुधवार की लिखी हुई है। योग विधि पदस्थापना विधि की यह प्रति वा साधुतिलक गण को प्रसादी कृत है। इसके अन्तिम पत्र की प्रति कृति नीचे दी दूर जा रही है । जिससे पाठकों को सूरिजी की अक्षर - हेतु के दर्शन हो जायेंगे 1
मुनि श्री चतुरविजयजी ने जैन सोत्र संदोह भाग २ की प्रस्तावना में जिनभद्रसूरिजी को अन्य रचनाओं, पादुकाओं, शिष्यों आदि का अच्छा विवरण दिया है।
मायामापशनानानि विनवासात न श्रमण संघ स्पान ३सीमा खमाम मा
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जावाविय नामंकारशनिरानिमिका निमन्नम्ममा सम्मा काकारसमान्द्रामत्रीपरमाणुरूवंवानं दिमाइ कामादादिति नियनिमि द्यावासी मायना मम्म पनि साविक विकारवैनिमन मातो यानि च सुनाया। निकास वाकर हामी दादा पवनाविविग्समा ३६ पानवर कालयी मुलाला वायुरुवंदन कदा नंदनवनादादिकानि पानाति ॥वित्रmar विरामविवशा ॥२॥ १११वार्य झापा २१४ वजनननिलिन मि ०मा तिलकमन्यववनाथ साक्षीनेथ पतिः ।।
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