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के भी पारंगत विद्वान थे। इसके साथ ही आपने कई वे सदलबल श्रावक-श्राविकाओं से पूर्व ही आचार्य देव के चमत्कारपूर्ण सिद्धियाँ भी प्राप्त की थीं।
दर्शनार्थ पहुंच गये और नगर में पधार ने की विनति की। एक बार संघ के साथ विहार कर जब दिल्ली की ओर आचार्यश्री अपने गुरुदेव युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरिजी पधार रहे थे तो मार्ग में चोरसिदान ग्राम के समीप संघ ने के दिये हुये उपदेश को स्मरण करते हुए दिल्ली नगर में प्रवेश अपना पड़ाव डाला। उसी समय संघ को यह मालूम हुआ न करने की दृष्टि से मौन रहे। उन्हें मौन देख कर पुनः कि कुछ लुटेरे उपद्रव करते हुए इधर ही आ रहे हैं। इस महाराज ने विशेष अनुरोध किया तो अन्त में आपने नगर समाचार से सभी भयभीत हो घबराने लगे। इस प्रकार में पदार्पण कर महाराज मदनपाल की मनोकामना पूरी संघ को भयातुर देखकर सूरिजी ने कारण पूछा कि आप की। यद्यपि आचार्यश्री को अपने गुरुदेव की दिल्ली न भयभीत क्यों हैं ? किस कारण से घबरा रहे हैं ? जाने की आज्ञा का उलंघन करते हुए मानसिक पीड़ा का जब आचार्यदेव को यह ज्ञात हुआ कि ये म्लेच्छोपद्रव से अनभव हो रहा था, तथापि भवितव्यता के कारण आपको व्याकुल हैं, तो उन्होंने तत्काल ही कहा-'आप सब दिल्ली नगर में पदार्पण करना ही पड़ा। वहां कुछ समय निश्चिन्त रहें, किसी का कुछ भी अहित होने वाला नहीं तक आपने अपने उपदेशों से भव्य जीवों का कल्याण करते है। प्रभु श्री जिनदत्तसूरिजी सब की रक्षा करेंगे।" हए आयशेष निकट जान कर सं० १२२३ भाद्रपद कृष्ण __इसके पश्चात् आपने मन्त्रध्यान कर अपने दण्ड से संघ चतर्दशी को चतुर्विध संघ से क्षमायाचना की एवं अनशन के चारों ओर कोट के आकार की रेखा खींच दी। इसका आराधना के पश्चात् आप स्वर्ग सिधार गये। प्रभाव यह हुआ कि संघ के पास से जाते हुए उन म्लेच्छों अन्तिम समय में आपने श्रावकों के समक्ष यह भविष्य(लुटेरों) को संघ ने भली प्रकार देखा, किन्तु उनकी दृष्टि वाणी की कि- 'नगर से 'जतनी दूर मेरा संस्कार किया संघ पर तनिक भी न पड़ी। इस प्रकार मार्ग में म्लेच्छो- जावेगा. नगर की बसावट वसती उतनी ही दूर तक बढ़ती पद्रव के भय से संघ मुक्त होकर आचार्य श्री के साथ विहार जायगी।" करता हुआ क्रमशः दिल्ली के समीप पहुंच गया।
___ इस सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि आचार्य श्री ___ आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी के दिल्ली पधारने की ने अपने स्वर्गवास के पूर्व ही संघ को बुलाकर यह आदेश सूचना पाकर जब सुन्दर वेशभूषा में सुसजित होकर नगर- दिया था कि “मेरे विमान ( रथी ) को मध्य में कहीं वासी एवं सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगलगान गाती हुई आचार्य विश्राम मत देना एवं सीधे नगर से बाहर उसी स्थान पर जी के दर्शनार्थ जाने लगी तो उन्हें जाते देखकर राजप्रासाद ले जाकर विश्राम देना, जहाँ दाहसंस्कार करना है।" में बैठे हुए महाराज मदनपाल ने अपने अधिकारियों से शोकाकुल संघने इस आदेश को भूलकर मध्य में ही पूर्व पूछा कि नगर के ये विशिष्ट जन कहां जा रहे हैं ? उन्होंने प्रथानसार विश्राम दे दिया। इसका परिणाम यह हुआ कहा-"राजन् ! ये लोग अपने गुरुदेव के स्वागतार्थ जा रहे कि तनिक विश्राम देने के पश्चात् जब विमान को उठाने हैं । आज उनका हमारे नगर के निकट ही पदार्पण हुआ है। लगे तो लाख प्रयत्न करने पर भी वह उस स्थान से लेशमात्र गुरुदेव अल्पवयस्क होते हुए भी धर्म के प्रकाण्ड वेत्ता, प्रभाव भी नहीं सरका। राजा मदनपाल को जब यह सूचना शाली तथा सुन्दर आकृति वाले हैं।" यह सुनकर महाराज मिली तो उन्होंने हाथी के द्वारा विमान को उठवाने की के मन में भी गुरुदेव के दर्शन की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई एवं व्यवस्था करवाई; किन्तु उसमें भी सफलता नहीं मिली।
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