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प्रस्तावना
परमाराध्य प्रातः स्मरणीय दादा साहब योगीन्द्र युग- प्रसिद्ध हैं। महरोली में जो 'बड़े दादाजी' नाम से प्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी का प्रभाव जैनजगत में सुप्रसिद्ध प्रसिद्ध आठ सौ वर्ष प्राचीन परमपावन दादावाड़ी अपना है। आप अतिशयधारी, शासन के महान् प्रभावक और महत्वपूर्ण अस्तित्व रखती है, आपही का स्मारक स्थान कान्तिकारी महापुरुष थे। आपने तीथंकर महावीर प्रभु है। दिल्ली में कितने ही पट परिवर्तन हुए हैं फिर भी इस के प्रकाशित धर्म को सामाजिक रूप देकर जातियों-गोत्रों अध्यात्मिक प्रकाश-स्तंभ को चिरस्थायी ज्योति अवश्य ही को स्थापना को, चैत्यवासी यतिजनों में फैले हुए शिथिला- एक चमत्कारिक और आश्चर्यपूर्ण है। चार को दूर कर उन्हें विधिमार्गानुगामी बनाया। यह
युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरिजी के अष्टम शताब्दी आपके ही सत्प्रयत्नों का फल है कि भगवान का शासन
महोत्सव सं० २०११ में अजमेर में मनाने के समय से ही आज भी जयवन्त है। आप आत्मद्रष्टा और अनेक देवदेवियों द्वारा पूजित थे। आपही के पट्टधर मणिधारी श्री
मणिधारी जो को अष्टम शताब्दो दिल्ली में मनाने का जिनचन्द्रसूरि जो अनेक भवों की साधना लिए हुए देवलोक
मनोरथ उद्भुत हुआ था पर देश, काल, भाव के उपयुक्त
अवसर की प्रतीक्षा में, आध्यात्मिक मूर्धन्य महापुरुष द्वारा से अवतरित, अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न षट्वर्षायु में दीक्षित
विलम्बित समय निर्देश पर परमपूज्या शाशन-प्रभाविका अष्टवर्षीयु में आचार्यपद और चतुर्दश वर्षायु में युगप्रधान
प्रवत्तिनी जी श्री विचक्षणश्रीजी महाराज की प्रेरणा से पद प्राप्त महापुरुष थे। उन्होंने ओसवाल, श्रीमाल और
अष्टम शताब्दी महोत्सव समिति ने तिथी निर्धारित अवश्य महित्तयाण जाति के अनेक गोत्र प्रतिबोध किये । अनेक विधि
कर दो और साध्वोजो तरफ से ग्रन्थ की तैयारी करने की चैत्यों की प्रतिष्ठाए की, अनेकों को श्रमणधर्म की दीक्षा
प्रेरणा होते हुए भी प्रकाशन निर्णय अत्यधिक विलम्ब से दो और दिल्ली के सम्राट मदनपाल तोमर जैसे नरेश्वर को प्रतिबोध दिया' । वे सुप्रसिद्ध गूर्जरेश्वर कुमारपाल
हुआ। हमने इत:पूर्व विद्वानों को एक आवेदन भी
निबन्धादि प्राप्त्यर्थ भेडा जिसमें हमारी योजना थी कि और महान् जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि के समकालीन थे। त्रिभुवनगिरि के यादव राजा कुमारपाल तो आपके गुरुवर्य
नाम यहनन्य दादासाहब ओर उनके अनुगामो महापुरुषों के दादा श्रीजिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिबोधित था ।
परिचय के साथ साथ खरतरगच्छ के विषय में एक मणिधारीजो को कोर्ति जगद्विख्यात है। वे अप्रतिम सर्वाङ्गीण महत्ता प्रकाशक ग्रन्थ हो । उसके लिये कम से व्यक्तित्व एवं प्रतिभामति यगप्रवान परुष थे। आपका कम छः आठ महीने का समय अपेक्षित था पर दो मास
पूर्व निर्णय होनेसे हमें इस स्मृति ग्रन्थ का तैयार करने का स्वर्गवास सं० १२२३ भाद्रपद कृष्ण १४ को भारत की । राजधानी दिल्ली में हम था। आप दूसरे दादा नामसे आदेश मिला। १ देखिये, हमारी 'मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरि' द्वितीयावृत्ति के लिये गत पचीस वर्षों से प्रयत्न करने पर भी २ इसका प्राचीन काष्टफलक चित्र जेसलमेर, थाहरूसाहजी पाठकों के समक्ष रखने में हम असफल रहे हैं। के शानभंडार में है जिसकी प्रतिकृति प्राप्त करने
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