________________
सप्तति के अनुसार पार्श्वनाथ प्रतिमा का प्रकटीकरण होने ६.धसोमेश्वर स्वप्नं सोमेश्वरनामा द्विजाति:, प्रभाते के पश्चात् नवाङ्गी टीका रची गई थी और प्रभावक वर्द्धमानसूरिरूप ईश्वरोऽयं साक्षादेष भगवानाचार्यः । चरित्र, प्रबंधचिन्तामणि व पुरातन प्रबन्ध संग्रह के अनुसार इति स्वप्नादेशप्रमाणेन प्रतिपद्यत्स्थां यात्रासम्पूर्णो मन्यनवाङ्गी टीका पूरी होने के बाद प्रतिमा का प्रकटन हुआ। मान आचार्यान्ति के शिष्यो जातः, पादाभिषिक्त: काले ___ आचारांग और सूयगडांग दो आगमों पर शीलांकाचार्य जातो जिनेश्वरसूरिनामा । तस्य शिष्य: श्रीमदभयदेवसूरिकी टीकाए हैं, बाकी नवांग सूत्रों पर आपने टीका लिखकर नवाङ्गवृत्तिकारः। सोऽपि कर्मोदयेन कुष्टी जातः । जैन शासन की महान् सेवा की है। टीकाए बहुत ही शुनदेवतादेशात् दक्षिण दिग्विभागात् धवलक्कके समात्य उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। इनके अतिरिक्त और भी बहुत संपयात्रया थीस्तम्भ नायकं प्रणतु स सूरिरागतः । ११३१ से ग्रन्थ पंचाशक वृत्ति, व कई ग्रन्थों के भाष्य बनाये थे। वर्षे श्री स्तम्भनायक: प्रकटीकृत: । ग्रामभट्टन बोहावे न आपके रचित कई स्तोत्र, प्रकरणादि भी प्राप्त हैं। सही यड एष पूज्यमानः। प्रतिदिनं ग्रामभट्टकपिलया गया
अभयदेवसूरिजी ने अनेक विद्वान तैयार किये, जिनमें निजोधस्यक्षरत् पयोधारया संजायमानस्नपनस्वरूपोऽभूत् । से बर्द्धमानसूरि रचित आदिनाथचरित, मनोरमा थादि तदा च श्रीमदभयदेवसूरिणा जयतिहु अण द्वात्रिंशतिका सर्वप्राकृत भाषा के म.त्वपूर्ण ग्रन्थ रचे हैं। श्रीजिन वल्लभ गणि जिनशाशन भक्त दैवतगण प्रौढप्रतापोदयात् गुप्तमहाको आपने आगमादि का अभ्यास करवाके बहुत ही योग्य मन्त्राक्षरा पेढे षोडशे च काव्ये स सूरिरशोकबालकुन्तल विद्वान और कवि बना दिया। इन जिनवल्लभसूरि की प्रास समपुद्गल श्री : जनिस्वामी च पलाशवृक्षमूलात् आत्रिसमस्त रचनाओं का संग्रह और उनका आलोचनात्मक रास। तत: शासनप्रभावको जातः। १३६८ वर्षे इदं अध्ययन महोपाध्याय विनयसागरजी ने किया है। उनके इस च बिम्बं श्री स्तम्भ तीर्थे समायातो भविकानग्रहणाय । शोधकार्य पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें महोपाध्याय इत्थं कालापेक्षया नाना भक्त्यै नाना नामग्राहं नानाभक्त्या पद से विभूषित किया है।
पूजितोऽयं परमेश्वरः । सर्वार्थसिद्धिदाता जातस्तेषां द्वात्रिं. आचार्य अभयदेवसूरि सर्वगच्छमान्य थे। उनका चरित्र शता प्रबन्धर्बद्ध श्रीस्तम्मनाथ चरितमिदं । श्री पत्र द्विषोडशो खरतरगच्छ की गुर्वावलि-पट्टावलियों के अतिरिक्त अन्य ऽभूत् बन्धोऽभयदेवसूरिकथा ॥ ३२ ॥ गच्छोय प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावक-वरित्र में एक स्वतत्र
इति अमन्द जगदानन्द दायिनि आचार्य श्री मेरुत्गप्रबन्ध के रूप में नाथत किया है। इसी तरह तपागच्छीय
विरचिते देवाधिदेव माहात्म्य शास्त्रे श्री स्तम्भनाथ चरिते सोमधर्म ने उादेश-सप्तति में भी उनका प्रबन्ध लिखा है।
द्वात्रिंशत्प्रबन्धबन्धुरे द्वत्रिंशत्तमः प्रबन्धः समर्थितः । पुरातन प्रबन्ध संग्रह में भी एक उनका प्रबन्ध प्रकाशित हुआ
समाप्त चेदं श्रीस्तम्भनाथचरितम् । है। इन तीनों प्रकाशित प्रबन्धों के अतिरिक्त मेरुतुंगसूरि रचित स्तंभ पार्श्वनाथ चरित्र के अन्तिम प्रबन्ध में भी सं० १४१३ के उपर्युक्त प्रबन्ध में स्तम्भन पार्श्वनाथ अभयदेवसूरि को कथा दो है । अप्रकाशित होने से उस कथा के प्रकटीकरण का समय सं० ११३१ दिया है इससे नवांगको नीचे दिया जा रहा है।
वृत्ति रचना के बाद ही यह घटना हुई-सिद्ध होता है। "प्रभाव परम्परायां श्रीचन्द्रगच्छे श्रीसुविहित- अभयदेवसूरिजी का स्वर्गवास सं० १.३५ या सं०१९३६ में शिरोवत्वंस वर्द्धमानसूरिनामा वढ़वाणनगरे विहारं कुर्वन्नाययौ। काडवंज में हुआ। खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार आप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org