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का अवलोकन बड़ी मुश्किल से कर सके । वहाँ की रिपोर्ट कच्ची नोंध व्यवस्थित कर प्रकाशित कराने के पहिले ही वे ईस्वी सन् १९१७ अक्टोबर मास में स्वर्गस्थ हुए ।
आज से ५० वर्ष पहिले ईस्वी सन् १९२० अक्टोबर बड़ौदा - राजकीय सेन्ट्रल लाइब्रेरी (संस्कृत पुस्तकालय) में 'जैन पंडित' उपनामसे हमारी नियुक्ति हुई, और विधिवशात् सद्गत ची० डा० दलाल एम० ए० के अकाल स्वर्गवास से अप्रकाशित वह कच्ची नोंध आधारित 'जेसलमेर दुर्ग जैन ग्रन्थभण्डार - सूचीपत्र' सम्पादित - प्रकाशित कराने का हमारा योग आया । दो वर्षों के बाद ईस्वी सन् १९२३ में उस संस्था द्वारा गायकवाड ओरियन्टल सिरीज नं० २१ में यह ग्रन्थ बहुत परिश्रम से बम्बई नि० सा० द्वारा प्रकाशित हुआ है। बहुत ग्रन्थ गवेषणा के बाद उसमें प्रस्तावना और विषयवार अप्रसिद्ध
ग्रन्थ, ग्रन्थकृत-परिचय परिशिष्ट आदि संस्कृत भाषा में मैंने तैयार किया था । उसमें जेसलमेर दुर्ग के बड़े भण्डार में नं० १८३ में रही हुई उपर्युक्त सवेगरंगशाला (२०३X२३ साइज) ३४७ पत्रवाली ताड़पत्रीय पोथी का सूचन है । वहाँ अन्तिम उल्लेख इस प्रकार है :
"इति श्रीजिनचन्द्रसूरिकृता तद्विनेय श्रीप्रसन्नचन्द्राचार्यसमभ्यथित - गुणचन्द्रर्गाणि प्रतिर्यत्कृ (संस्कृता जिनवल्लभगजिना संशोधिता संवेपरंगशालाभिधानाराधना समाप्ता ।
संवत् १२०७ वर्षे ज्येष्ठमुदि १० गुरौ अद्य ह श्रीवटपद्रके दंड० श्रीवोसरि प्रतिपत्तो संवेगरंगशाला पुस्तकं लिखित मिति ।"
- स्व० दलाल ने इसकी पीछे की २७ पद्योंवाली लिखानेवाले की प्रशस्ति का सूचन किया है, अवकाशाभाव से वहाँ लिखो नहीं थी ।
जे० भां० सूचीपत्र में 'अप्रसिद्ध ग्रन्थ- ग्रन्थकृत्परिचय' कराने के समय मैंने 'जैनोपदेशग्रन्था:' इस विभाग में
पृ०
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३८-३९ में 'संवेग रंगशाला' के सम्बन्ध में अन्वेषण पूर्वक संक्षिप्त परिचय सूचित किया था। उसकी रचना सं०११२५ में हुई थी । लि० प्रति सं० १२०७ की थी । रचना का आधार नीचे टिप्पणी में मैंने मूलग्रन्थ की अर्वाचीन से० ला० की ह० लि० प्रति से अवतरण द्वारा दर्शाया थासमइक्कतेसु वरिसाण । एक्कारससु पणवीस समहि ॥ सएसु निष्पत्ति संवत्ता एसाराहण त्ति फुडपायडपयत्था ।" भावार्थ - विक्रमनृपकाल से ११२५ वर्ष बीतने के बाद स्फुट प्रगट पदार्थवाली यह आराधना सिद्धि को प्राप्त हुई ।
fugafra कालाओ
इसके पीछे मैंने हट्टिप्पणिका का भी संवाद दर्शाया था—''संवेगरङ्गसाला ११२५ वर्षे नवाङ्गाभयदेववृद्ध भ्रातृजिनचन्द्रीया १००५३"
मैंने वहाँ संस्कृत में संक्षेप में परिचय कराया था कि 'आराधनेत्यराह्वयं नवाङ्गवृत्तिकाराभयदेवसू रे रभ्यर्थ नया विरचिता । विरचयिता चायं जिनेश्वरसूरेर्मुख्य: 'शष्योऽभयदेत्रसूरेश्व वृद्धगतीर्यः । ”
अभयदेवसूरि पर टिपणी में मैंने उसी संवेगरंगशाला की से० ला० की ह० लि० प्रति से पाठ का अवतरण वहां दर्शाया था -
"सिरिअभय देवसूरित्ति पत्तकित्ती परं भवणे ||[१००४ ] जे कुह महारिउ विम्ममाणस्स नरवइस्सेव । सुपधस्स दढतं निव्वतियमंगवित्तहिं ॥ [ १००४२] तस्सम्भवसो लिरिणिचंद मुनिवरेण इमाण ।
लागारे उचिऊण वरवयणकुमाई ॥ [१००४३] मूत्र का गणाओ, गुथित्ता निययगुणेण ददं । वित्रित्य - सोरभरा, निम्मविया राहणामाला ॥[१००४४]'
भावार्थ:- भवन में श्रेष्ठ कीर्ति पानेवाले श्री अभयदेवसूरि हुए। जिसने कुबोध रूप महारिपु द्वारा विनष्ट किये जाते नरपति जैसे श्रुतधर्म का दृढ़त्व अंगों को वृत्तियों द्वारा किया | उनकी अभ्यर्थना के वश से
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