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________________ ५२ डा० सुदर्शन लाल जैन २. समवायाङ्ग में'---आचाराङ्ग में श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम, उत्पादन, एषणा-विशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहण, व्रत, नियम, तपोपधान इन सबका सुप्रशस्त कथन किया गया है। वह आचार संक्षेप से ५ प्रकार का है—ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। अङ्गों के क्रम में यह प्रथम अङ्ग-ग्रन्थ है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, २५ अध्ययन हैं, ८५ उद्देशन काल हैं, ८५ समुद्देशन काल हैं और १८ हजार पद हैं । परीत (परिमित) वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्यायें हैं, परिमित त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, शाश्वत, कृत (अनित्य), निबद्ध (ग्रथित) और निकाचित (प्रतिष्ठित) हैं, जिनप्रज्ञप्त भाव हैं, जिनका सामान्य रूप से और विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है, दर्शाया गया है, निदर्शित किया गया है तथा उपदर्शित किया गया है। आचाराङ्ग के अध्ययन से आत्मा ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस तरह इसमें चरण और करण धर्मों की ही विशेषरूप से प्ररूपणा की गई है। इस अन्तिम पैराग्राफ को समस्त बातें सभी १२ अङ्गों के सन्दर्भ में एक ही समान कही गई हैं। समवायाङ्ग के ५७वें समवाय के सन्दर्भ में आचारात (९+ १५%D२४ अध्ययन, आचारचुला छोड़कर ), सूत्रकृताङ्ग ( २३ अध्ययन ) और स्थानाङ्ग (१० अध्ययन) के अध्ययनों की सम्पूर्ण संख्या ५७ बतलाई है। नवम समवाय में आचाराङ्ग के ९ ब्रह्मचर्य अध्ययन गिनाये हैंशस्त्र-परिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णोय, सम्यक्त्व, अवन्ती, धूत, विमोह, उपधानश्रुत और महापरिज्ञा । पच्चीसवें समवाय में चूलिका सहित २५ अध्ययन गिनाये हैं। ३. नन्दीसूत्र में-आचाराङ्ग में श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, शिक्षा, भाषा, अभाषा, करण, यात्रा, मात्रा ( आहार परिमाण ) आदि का कथन संक्षेप में है। आचार ५ प्रकार का है-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपःआचार और वीर्याचार । अङ्गक्रम और वाचना आदि का समस्त विवेचन समवायाङ्ग की तरह बतलाया है। ४. विधिमार्गप्रपा में -आचाराङ्ग के २ श्रुतस्कध बतलाए गए हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के ९ अध्ययन कहे गए हैं-शस्त्र-परिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, अवन्तो या लोकसार, १. समवायाङ्गसूत्र ५१२-५१४ २. तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा आयारे सूयगडे ठाणे । समवायाङ्ग, समवाय ५७ सूत्र ३०० । ३. समवायाङ्ग ९५३ ४. समवायाङ्ग २५.१६८ ५. नन्दीसूत्र, सूत्र ४६ ६. विधिमार्गप्रपा पृ० ५०-५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012017
Book TitleAspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM A Dhaky, Sagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1991
Total Pages572
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size12 MB
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