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श्री हरजसराय जैन : एक समर्पित व्यक्तित्व
- हरीशचन्द्र जैन
कुछ बातें असम्भव नहीं तो कठिन जरूर होती हैं— श्रीमंत होकर भी सादगी में जीना, सहायता के लिए नौकर-चाकरों के रहते भी हर काम खुद निबटाना और संसार में रहते हुए भी संसार मोह माया से निर्लिप्त होकर जोना । ऐसे व्यक्ति में ज्ञान, चरित्र और सेवा का संगम होता है । ऐसा ही व्यक्ति धर्म तथा समाज के लिए कुछ ठोस कर पाता है ।
श्री हरजसराय जी से मेरा परिचय सन् १९३७-३८ से है । बम्बई आते और मेरे पूज्य पिता श्री जगन्नाथ जी जैनी के पास रहते से दूर हमेशा खादी के निर्मल वस्त्रों में ही देखा है ।
इस बीच अक्सर उनसे लम्बी चर्चाएँ होतीं। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जिस पर वे अधिकारपूर्वक नहीं बोलते । सामान्य घर-गृहस्थी से सम्बन्धित विषयों से लेकर तारामण्डल व ग्रहनक्षत्रों तक। परन्तु हर बार चर्चा सिमट कर श्री सोहनलाल जैन विद्या प्रसारक मण्डल एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान पर आ जाती । उसके विकास की चिन्ता उन्हें हर समय सताये रहती और मैं मानता हूँ कि उसी चिन्ता का परिणाम है कि आज पार्श्वनाथ विद्याश्रम जेन -विद्या का विश्व प्रसिद्ध शोध संस्थान है ।
व्यापार के सम्बन्ध में अक्सर
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मैंने उन्हें सामान्य तड़क-भड़क
मैं अधिक समय उन्हें समिति या विद्याश्रम के कार्यों में ही लगा पाया है । संस्था की प्रगति धीमी न हो, इसके लिए उन्होंने एक-एक दिन में ५०-५० पत्र तक अपने हाथ से लिखे हैं ।
परन्तु कार्य में तल्लीनता के बावजूद स्वभाव में विरक्ति उनकी विलक्षणता है । मुझे मालूम है, परिजन के विछोह के समय भी वे सामान्य व्यक्ति की तरह जगत् को असारता पर चर्चा नहीं करते; बल्कि घटना से निर्लिप्त हो कर्म में तल्लीन रहते । शायद गीता में ऐसे ही व्यक्ति के लिए 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते...' की बात कही गई है ।
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पार्श्वनाथ विद्याश्रम, श्रीरामाश्रम हाईस्कूल, होम्योपैथिक चिकित्सालय आदि शिक्षा एवं सेवा के उनके रोपे गये पौधे वटवृक्ष का आकार लें, यही कामना है ।
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खार, बम्बई
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