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उपाय प्र
आचार्य प्रव श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द अन्थन
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आचार्य प्रवर श्री आनन्दऋषि: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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श
वैराग्य का अंकुर
बालक नेमिचन्द्र का मानस यद्यपि प्रारम्भ से ही उर्वरा भूमि के सदृश था किन्तु एक ऐसी दुखद घटना घटी कि उसमें वैराग्य का अंकुर भी फूट गया। एक दिवस होनहार छात्र नेमिचन्द्र ज्योंही अपनी शाला से लौटे, देखा कि घर में व्याकुलता पूर्ण कोहराम मचा हुआ है । हक्के-बक्के से होकर जब उन्होंने परि स्थिति की जानकारी की तो मालूम हुआ कि उनके पूज्य पिता श्री देवीचन्द्र जी दुकान से लौटने के पश्चात से ही उदरशूल से पीड़ित हैं। गाँव के सुयोग्य वैद्य उनका इलाज कर रहे हैं, किन्तु सम्पूर्ण प्रयत्नों के बावजूद भी मर्ज बढ़ता जा रहा है । कुछ क्षण अवाक् रहने के पश्चात् ही दुःखातिरेक के कारण विह्वल पुत्र नेमिचन्द्र कटे पेड़ की तरह पिता के शरीर पर गिर पड़े तथा फूट-फूट कर रोने लगे, पर उससे क्या होता ? हुआ वही जो होना था । अपनी धर्मपरायणा पत्नी, पुत्र, पुत्री व समस्त सम्बन्धियों के देखतेदेखते ही महापथ के उस पथिक ने इस लोक से प्रयाण कर दिया। कुछ घंटों में ही हर्षमग्न परिवार शोकसागर में डूबने-उतराने लगा ।
पिता का देहान्त पुत्र के मानस-मन्थन का कारण बना और बालक नेमिचन्द्र ने उसी समय से संसार की अनित्यता एवं जन्म-मरण-जनित क्लेशों के विषय में विचार करना प्रारम्भ कर दिया। परिणाम यह हुआ कि सांसारिक सुखों से विरक्त होकर उन्होंने अक्षय सुख की प्राप्ति के मार्ग पर चलने की ठान ली।
इस प्रकार वैराग्य से अनुप्रेरित होकर नेमिचन्द्र जी ने अपना समय ज्ञानार्जन, ईशभक्ति, संतदर्शन, शास्त्र श्रवण तथा चिन्तन-मनन आदि में व्यतीत करना प्रारम्भ कर दिया तथा वह बाल योगी अपनी बाल- बुद्धि के अनुसार ही संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त, जल-कमलवत् रहने लगा ।
धर्म पर उनका विश्वास एक और भी चमत्कारिक घटना से बढ़ा, जो इस प्रकार है- एक बार आप अपनी माता के साथ परमविदुषी एवं अनेक शास्त्रों की ज्ञाता महासती जी श्री रामकुँवर जी महाराज एवं उनकी सुयोग्य शिष्याओं के दर्शनार्थ हिवड़ा (अहमदनगर) गए। वहाँ अपनी मौसी के यहाँ ठहरे तथा बीस दिन तक महासती जी के दर्शन, प्रवचन एवं विचार-विमर्श का लाभ लेते रहे । तदनन्तर महासती जी के मुखारविन्द से मंगल पाठ सुनकर ताँगे से रवाना हुए।
मार्ग में अचानक ही भूमि के समतल न होने से तांगे का एक पहिया गड्ढे की और तांगे के टेढ़े होते ही नेमिचन्द्र सड़क पर आ गिरे। बैल रुके नहीं और तांगे का से निकल गया । यह सब कुछ इतनी शीघ्रता से हुआ कि माता हुलासावाई केवल उठने के अलावा और कुछ न कर पाईं। किन्तु उन्हें महान् आश्चर्य तब हुआ जब कि तांगे से उतरकर उन्होंने पुत्र को कलेजे से लगाकर शरीर पर आई हुई चोट का पता लगाने की कोशिश की। पर कहीं भी एक भी चोट या घाव उन्हें अपने पुत्र के शरीर पर नहीं मिला। बार-बार देव गुरु की कृपा मानते हुए उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाए और चैन की सांस लेते हुए गद्गद स्वर से कहा - "यह देव-गुरु-धर्म का प्रताप ही है बेटा कि तू इतने ऊपर से गिरा और तांगे का पहिया भी तेरे शरीर पर गुजर गया किन्तु कहीं चोट नहीं आई । महासती जी के द्वारा सुनाए गए मंगलपाठ ने ही तुझे बाल-बाल बचा लिया ।"
इस घटना ने भी नेमिचन्द्र जी के हृदय में जमे हुए धर्म के बीज को स्थिर कर दिया और उन्होंने संयम लेकर आजीवन धर्माराधन करने का निश्चय किया। इस संकल्प को कार्यान्वित करने के लिये सर्वप्रथम उन्होंने सरकारी पाठशाला को त्याग दिया । बुद्धि अत्यन्त कुशाग्र होने पर भी पितृ-वियोग के पश्चात आपका मन उस मराठी शाला में नहीं लगा । अतः चतुर्थ कक्षा में ही अध्यापकों को नमस्कार करके आप स्कूल से बाहर आ गए ।
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ओर झुक गया पहिया उनके ऊपर आर्तस्वर से चीख
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