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एक इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व : आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि ५ विज्जा-विणय-संपन्ने-का शास्त्रीय आदर्श उनके जीवन के कण-कण से मुखरित होता-सा लगता है। विद्या के साथ विनय, विनय के साथ विवेक, विवेक के साथ वाग्मिता, व्यवहारपटुता आदि अनेक दिव्य-भव्य गुणों की श्रृंखला ऐसी जुड़ी हुई है कि जैसे मणि-मुक्ता-मंडित माला में एक-एक बहमूल्य मुक्ता गुथी हुई हो।
उनकी प्रतिभा बड़ी विलक्षण है । महावीर अगर आज होते तो अपने इस प्रिय शिष्य को-आसुपन्ने दीहपन्ने-आशुप्रज्ञ, दीर्घप्रज्ञ कहकर संबोधित करते । नवनवोन्मेषशालिनी उनकी सूक्ष्म एवं धर्मशुद्ध प्रतिभा बड़ी चमत्कारी है । बचपन में वे जब पढ़ते थे तो बड़े-बड़े न्याय एवं व्याकरण के आचार्य जो अध्यापक बनकर आये थे, उनके सूक्ष्म तर्कों और मूल-ग्राही जिज्ञासा-प्रधान प्रश्नों से कतराने लगे थे। बचपन में ही प्रतिभा की आशातीत स्फूरणा थी और सत्योन्मुखी जिज्ञासा भी। वही जिज्ञासा जिसने दर्शन को जन्म दिया, इन्द्रभूति गौतम को महावीर के समवशरण तक आकृष्ट किया और विशाल वाङ्मय की सर्जना की, आनन्दऋषि जी में भी उसीप्रकार की स्फूर्त जिज्ञासा आज भी देखी जाती है। इसी प्रतिभा और स्फूर्त जिज्ञासा ने आनन्दऋषि को श्रुतज्ञान की अमूल्य निधि की कुंजी सौंपी, वे विद्यासम्पन्न बने। न केवल स्वयं विद्वान बने किन्तु इनके मन में विद्याप्रसार की एक अक्षय लौ भी प्रज्ज्वलित हुई । जिसकी ज्योति से दूर-दूर के प्रदेश आलोकित हुए। हजारों अन्धकाराच्छन्न हृदयों में ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाया । शिक्षाप्रचार की एक अनूठी धुन है आचार्यश्री के हृदय में । जैसी धुन कभी महामना मालवीय जी के हृदय में जगी थी और उन्होंने अपना तन-मन-जीवन अर्पित कर चिरस्मरणीय सरस्वती मन्दिर के रूप में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कुछ वैसी ही अनूठी, अद्भुत और विलक्षण धुन आचार्यप्रवर के जीवन में दृष्टिगोचर होती है। यद्यपि इन्होंने एक महामंदिर की स्थापना न करके, अनेक सैकड़ों की संख्या में छोटे-छोटे शिक्षाकेन्द्र, विद्यालय, पाठशालाएँ स्थापित की हैं । आज भी जहाँ जाते हैं, विद्याशाला की स्थापना, ज्ञानकेन्द्र, परीक्षा केन्द्र का निर्माण उनका सबसे पहला लक्ष्य रहता है। ऐसा लगता है कि इस ज्ञानपुरुष के कण-कण में शिक्षाप्रसार की एक दिव्यज्योति जल रही है, जो ज्वाला बनकर समस्त अज्ञान-तिमिर को लील जाना चाहती है।
आचार्य आनन्दऋषि, सत्यनिष्ठा के एक अमर प्रतीक हैं--सच्चस्स आणाए उवट्ठिए मेहावी मार तरइ-सत्य की आराधना में उपस्थित मेधावी मृत्यु को जीत लेता है। आचार्यप्रवर के सन्दर्भ में यह शब्दावली साकार हो रही है । सत्य में उनकी निष्ठा है, इसलिए नहीं कि वे सत्यमहाव्रतधारी हैं, किन्तु इसलिए है कि सत्य के सिवाय जीवन का और कोई मार्ग ही उनके समक्ष नहीं है । सत्य की आराधना में वे सर्वात्मना समर्पित हो गये हैं। वे किसी भी मूल्य पर, प्रतिष्ठा, परम्परा और भक्तों की भक्ति के मूल्य पर भी सत्य की अवहेलना नहीं करते। सबसे उत्कृष्ट और सबसे प्रमुख सत्य की आराधना ही उनके जीवन का व्रत है।
अहिंसा और करुणा आचार्यश्री के जीवन-सरोवर की दो मनोहर पालें हैं। जैसे सरोवर के । किनारे कभी भी देखो शीतलता और हरियाली का साम्राज्य मिलेगा, उसी प्रकार इस अहिंसक तपस्वी के जीवन तट पर कभी-भी आप विचरण करेंगे तो अहिंसा की हरियाली खुशियाली और करुणा की शीतलता, शांतता से आपका तन-मन पुलक-पुलक उठेगा। उनके मन में करुणा का मधुर रस छलकता रहता है, जब भी उनकी वाणी सुनो, बड़ी मधुर, स्नेह-स्निग्ध, आत्मीय भावों से भरी और करुणा की रसधारा से आ प्लादित ! वे अपने प्रत्येक कार्य में सर्वप्रथम यह देखते हैं कि किसी के मन को, किसी के हृदय को कोई आघात न पहुँचे, किसी प्रकार की ठेस या चोट न लगे । पद-पद पर वे इसी बात से चिंतित रहते हैं कि उनसे किसी का कुछ भला हो सके या नहीं, पर किसी का भी, भले ही उनका अपना शिष्य
आचार्यप्रअभिआचार्यप्रवभिन श्रीआनन्दमश्रीआनन्दमान
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