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श्री आनन्द अन्य ग्रन्थ
डॉ
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श्री आनन्द अन्थ : 92
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इतिहास और संस्कृति
'श्री आदिनाथ' (ऋषभनाथ) की प्रतिमाओं पर ही अंकित मिलते हैं । कुषाण काल तक की प्रतिमाओं में तीर्थंकरों का लांछन चिन्ह नहीं होता था । केवल भगवान ऋषभदेव' आदिनाथ का बैल (वृषभ), 'श्री पद्मप्रभु का 'कमल', 'श्री पार्श्वनाथ' का 'सर्प' और 'श्री महावीर' का 'सिंह' लांछन रूप में प्रयोग होता था । सर्वतोभद्रका (चौमुखी) प्रतिमाओं में आदि तीर्थंकर "श्री ऋषभनाथ, बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ, (श्रीकृष्ण के चचेरे भाई), २३ वें श्री पार्श्वनाथ और २४ वें श्री महावीर” का अंकन होता था ।
तीर्थंकर मूर्तियों के साथ कुषाण काल तक शासन देवताओं का अंकन नहीं होता था । पश्चात् की कला में उनका निर्माण हुआ है । प्रारम्भिक मूर्तियों में चरण चौकी पर ' धर्म चक्र" के पूजन का दृश्य तथा अभिलेख दिखलाई पड़ता है, जिसमें "मूर्ति की प्रतिष्ठा, तिथि, दाता का नाम तथा गुरु परम्परा" आदि का उल्लेख रहता है । मध्यकाल तक पहुँचते-पहुँचते तीर्थंकर मूर्तियों में शासन-देवताओं के अतिरिक्त अन्य कई अभिप्रायों का अंकन होने लगा । जैसे तीन छत्र, छत्रों के ऊपर ढोलक बजाता देव, हाथियों द्वारा अभिषेक इत्यादि । जिस तीर्थंकर प्रतिमा की पृष्ठ- पट्टिका पर अन्य तेइस तीर्थंकरों का अंकन रहता है, उसे सम्पूर्ण मूर्ति' या चतुर्विंशतिका अथवा चौबीसी कहते हैं । जैन प्रतिमाएं उत्तर-प्रदेश, तथा पश्चिमी भारत में विपुलता से प्राप्त हैं । दक्षिण भारत भी उनके दर्शन होते हैं । पूर्वी भारत में उनकी संख्या अधिक नहीं है ।
५७ फुट ऊँची पाषाण गोम्मट्टेश्वर-मूर्ति
रानी से 'भरत और ६६ पुत्र तथा एक
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की दो पत्नियाँ थीं। प्रथम ब्राह्मी नाम की पुत्री थी। दूसरी रानी के गर्भ से एक पुत्र वाहुबलि और पुत्री सुनन्दा' थी । 'ऋषभदेव' ने प्रव्रज्याग्रहण करते समय ज्येष्ठ पुत्र 'भरत' को उत्तरापथ का और बाहुबलि को दक्षिणापथ का शासन सौंपा था । 'भरत' की राजधानी अयोध्या थी और बाहुबलि की पोदनपुर ।
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महाराजा 'भरत' महत्वाकांक्षी थे, उन्होंने चक्रवर्तित्व के लिए दिग्विजय की दुदुभि बजायी । दसों दिशाओं में अपनी सत्ता स्थापित कर जब भरत अपनी राजधानी अयोध्या वापस लौटे तो 'चक्र - रत्न' नगर के प्रवेश द्वार पर अटक गया। जैन-पुराणों के अनुसार एक भी शत्रु के रहते 'चक्र - रत्न' राजधानी में प्रवेश नहीं करता है। मंत्रणा से ज्ञात हुआ कि छोटे 'बाहुबलि' ने सम्राट भरत की आधीनता स्वीकार नहीं की है । वह अपने को स्वतन्त्र - शासक घोषित करते हैं ।
ऐसी स्थिति में युद्ध अनिवार्य था । दोनों बन्धुओं की सेनाएँ युद्ध भूमि में उतर आयीं । मन्त्रियों ने निर्णय दिया, "इस बन्धु-युद्ध में सेनाएँ तटस्थ रहेंगी । दोनों भाई युद्ध कर अपना निर्णय कर लें । विजयी चक्रवर्ती घोषित होगा । "नेत्र - युद्ध, जल-युद्ध और मल्ल युद्ध द्वारा जय-पराजय का निर्णय होना था। तीनों युद्धों में 'बाहुबलि' विजयी रहे ।
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विजयी 'बाहुबलि' को आघात तब को अन्तर्दर्शन हुआ, और उन्होंने चक्र को ग्रहण कर ली। राज्य सम्पदा भरत को अर्पित कर दी ।
महाराजा 'भरत' चक्रवर्ती बने । उनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा। उनकी बहन ब्राह्मी
लगा जब भरत ने उन पर 'चक्र' चला दिया । इससे बाहुबलि रोकने के लिये ऊपर उठाये हाथों से केश-लुचन कर 'दीक्षा'
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