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आचार्यप्रवास अभिगमन
भागप्रवर आभा श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य५
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इतिहास और संस्कृति
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बहत्तर कलाएँ पुरुष के लिये तथा चौसठ स्त्रियों के लिए थीं। उनमें पुरुष कलाओं में गीत का पांचवां स्थान है और स्त्री-कलाओं में ग्यारहवाँ । ज्ञातृधर्मकथा में मेघकुमार का वर्णन करते हुए उसका विशेषण 'गीतरतिगांधर्वनाट्य कुशल' दिया है। दशाश्रुतस्कन्ध में भोगकुल और उग्रकुल के पुत्रों का वर्णन करते हुए लिखा है कि वे नाट्य, गीत, वादित्र, तंत्री, ताल, त्रुटित, घन, मृदंग आदि वाद्य यन्त्रों से युक्त थे।
आभिजात्य और सामान्य दोनों ही वर्गों में समान रूप से संगीत प्रचलित था। उत्तराध्ययन के अनुसार चित्र और सम्भूत नामक मातंग पुत्र तिसरय, वेणु और वीणा को बजाते हुए नगर से निकलते थे तो लोग उनके गायन-वादन पर मुग्ध हो जाते थे। कौमुदी एवं इन्द्र महोत्सव पर भी संगीत का आयोजन किया जाता था। राज उदयन के अलौकिक संगीत नैपुण्य की चर्चा आवश्यकणि में मिलती है। उसने एक बार मदोन्मत्त बने हुए हाथी को संगीत के द्वारा वश में कर लिया था। सिन्धु-सौवीर के राजा उद्रायण भी संगीत-कला में निपुण थे और स्वयं वीणा बजाते थे । आवश्यकचूणि के अनुसार उनकी रानी सरसों के ढेर पर नृत्य करती थी। स्थानाङ्ग में काव्य के चार प्रकारों में संगीत की गणना की गई है। काव्य के चार प्रकार ये हैं-वाद्य, नाट्य, गेय और अभिनय । उसमें वीणा, ताल, तालसय और वादिन्त्र को मुख्य स्थान दिया है । नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरत ने भी नाट्य में संगीत का महत्व प्रतिपादित किया है
सर्वेषामेव लोकानां, दुःखशोक विनाशनम् ।
यस्मात्संदृश्यते गीतं, सुखदं व्यसनेष्वपि ॥ अर्थात् 'संगीत संसार के सभी प्राणियों के दुःख, शोक का नाशक है और आपत्तिकाल में भी सुख देने वाला है।' गीत के प्रमुख प्रकार
समवायाङ्ग और स्थानाङ्ग में गीत के तीन प्रकार माने हैं, किन्तु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में उसके चार प्रकार बताये हैं । स्थानाङ्ग में कथन है कि सात स्वर हैं और वे नाभि से समुत्पन्न होते हैं और शब्द ही उनका मूल स्थान है। छन्द के प्रत्येक चरण में उच्छ्वास ग्रहण किये जाते हैं और गीत के तीन प्रकार हैं-गीत प्रारम्भ में मृदु होता है, मध्य में तीव्र और अन्त में पुन: मन्द होता है । गीत के छह दोष इस प्रकार हैं (१) भीतं-भयभीत मन से गायन । (२) द्रुतं-जल्दी-जल्दी गायन। (३) अपित्थं--श्वासयुक्त शीघ्र गाना अथवा ह्रस्व स्वर तथा लघुस्वर से गायन । (४) उत्तालं- अति उत्ताल स्वर तथा अवस्थान ताल से गायन । (५) काक-स्वर-कौए की तरह कर्ण-कटु शब्दों से गायन, तथा (६) अनुनासिकम् -अनुनासिका से गायन । गीत के गुण स्थानाङ्ग में गीत के आठ गुण बताये हैं
पुन्नं रत्तं च अलंकियं च वत्त तहा अविघुळं। मधुरं समं सुकुमारं, अठ्ठगुणा होति गेयस्स ॥ ७/३/२४
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