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पुरातत्त्व मीमांसा
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उसी वर्ष में, राधाकांत शर्मा नामक एक भारतीय पण्डित ने टोवरा वाले दिल्ली के अशोकस्तम्भ पर खुदे हए अजमेर के चौहान राजा अनलदेव के पुत्र वीसलदेव के तीन लेखों को पढ़ा। इनमें से एक लेख की मिति 'संवत् १२२० वैशाख सुदी ५' है । इन लेखों की लिपि बहुत पुरानी न होने के कारण सरलता से पढ़ी जा सकती थी। परन्तु उसी वर्ष जे० एच० हेरिंग्टन ने बुद्ध गया के पास वाली नागार्जनी और बराबर गुफाओं में से मौखरी वंश के राजा अनन्त वर्मा के तीन लेख निकलवाए जो उपर्वणित लेखों की अपेक्षा बहुत प्राचीन थे। इनकी लिपि बहुत अंशों में गुप्तकालीन लिपि से मिलती हुई होने के कारण उनका पढ़ा जाना अति कठिन था । परन्तु, चार्ल्स विल्किन्स ने चार वर्ष तक कठिन परिश्रम करके उन तीनों लेखों को पढ़ लिया और साथ ही उसने गुप्तलिपि की लगभग आधी वर्णमाला का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया।
गुप्तलिपि क्या है, इसका थोड़ा-सा परिचय यहाँ कराये देता हूँ। आजकल जिस लिपि को हम देवनागरी अथवा बालबोध लिपि कहते हैं उसका साधारणतया तीन अवस्थाओं में से प्रसार हुआ है। वर्तमान काल में प्रचलित आकृति से पहले की आकृति कुटिल लिपि के नाम से कही जाती थी। इस आकृति को समय साधारणतया ई० सन् की छटी शताब्दी से १० वीं शताब्दी तक माना जाता है। इससे पूर्व की आकृति गुप्तलिपि के नाम से कही जाती है। सामान्यतः इसका समय गुप्तवंश का राजत्व काल गिना जाता है। इससे भी पहले की आकृति वाली लिपि ब्राह्मी लिपि कहलाती है। अशोक के लेख इसी लिपि में लिखे गये। इसका समय ईसा पूर्व ५०० से ३५० ई. तक माना जाता है ।
सन् १८१८ ई० से १८२३ ई० तक कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूताना के इतिहास की शोध खोज करते हुए राजपूताना और काठियावाड़ में बहुत से प्राचीन लेखों का पता लगाया। इनमें से सातवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के अनेक लेखों को तो उक्त कर्नल साहब के गुरु यति ज्ञानचन्द्र ने पढ़ा था। इन लेखों का सारांश अथवा अनुवाद टॉड साहब ने अपने "राजस्थान" नामक प्रसिद्ध इतिहास में दिया है।
सन् १८२८ ई० में बी० जी० वेविङ्गटन ने मामलपुर के कितने ही संस्कृत और तामिल लेखों को पढ़कर उनकी वर्णमाला तैयार की। इसी प्रकार वाल्टर इलियट ने प्राचीन कनाड़ी अक्षरों का ज्ञान प्राप्त करके उसकी विस्तृत वर्णमाला प्रकाशित की।
सन् १८३४ ई० में केपटेन ट्रायर ने प्रयाग के अशोक स्तम्भ पर उत्कीर्ण गुप्तवंशी राजा समुद्रगुप्त के लेख का बहुत सा अंश पढ़ा और फिर उसी वर्ष में डॉ० मिले ने उस सम्पूर्ण लेख को पढ़कर १८३७ ई० में भिटारी के स्तम्भ वाला स्कन्धगुप्त का लेख भी पढ़ लिया।
१८५३ ई० में डब्ल्यू० एम० वॉथ ने वलभी के कितने ही दानपत्रों को पढ़ा ।
१८३७-३८ में जेम्स प्रिंसेप ने दिल्ली, कमाऊँ और एरण के स्तम्भों एवं अमरावती के स्तूपों तथा गिरनार के चट्टानों पर खुदे हुए गुप्त लिपि के बहुत-से लेखों को पढ़ा।
सांची स्तूप के चन्द्रगुप्त वाले जिस महत्वपूर्ण लेख के सम्बन्ध में प्रिंसेप ने १८३४ ई० में लिखा था कि 'पुरातत्त्व के अभ्यासियों को अभी तक भी इस बात का पता नहीं चला है कि सांची के शिलालेखों में क्या लिखा है।' उस विशिष्ट लेख को यथार्थ अनुवाद सहित १८३७ ई० में करने में वही प्रिंसेप साहब सम्पूर्णतः सफल हुए।
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आगावरान आगाशाजनक मिनन्द आश्राआनन्द
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