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________________ पुरातत्त्व मीमांसा १६३ अभी तक तो बहुत बड़ी संख्या में विद्यमान थे। इन्हीं के आधार पर यदि इतिहास के तथ्य खोज कर निकालने के प्रयत्न किये जाते तो आज की तरह उसी समय हमारे इतिहास के बहत से अध्यायों की रचना हो गई होती परन्तु, इस ओर किसी की दृष्टि ही नहीं गई और फिर बाद में देश में ज्यों-ज्यों अज्ञानता और अराजकता फैलती गई त्यों-त्यों ही लोग प्राचीन लिपि एवं तत्सम्बन्धी स्मतियों को भूलते गये और इस प्रकार पर्याप्त साधनों के होते हुए भी उनका कोई सम्यक उपयोग नहीं हो पाया । सन् १३५६ ई० में दिल्ली का सुल्तान फीरोजशाह तुगलक टोवरा और मेरठ से अशोक के लेखों वाले दो बड़े स्तम्भों को बड़े उत्साह और परिश्रम के साथ दिल्ली लाया था (जिनमें एक फीरोजशाह के कटेरे में और दूसरा 'कुश्क शिकार' के पास खड़े किये गये हैं)। इन स्तम्भों पर खुदे हुए लेखों में क्या लिखा है यह जानने के लिए उस बादशाह ने बहुत परिश्रम किया और बहुत से पण्डितों को बुलवा कर उनको पढ़वाने का प्रयत्न किया परन्तु उनमें से कोई भी उन लेखों को पढ़ने में सफल नहीं हुआ। इससे अन्त में बादशाह को बहुत निराशा हुई । अकबर बादशाह को भी इन लेखों का मर्म जानने की प्रबल जिज्ञासा थी परन्तु कोई मनुष्य उसको पूर्ण न कर सका । प्राचीन लिपियों की पहचान को भूल जाने के कारण, जब कभी कोई पुराना लेख अथवा ताम्रपत्र मिलता तो, लोग उसके विषय में विविध प्रकार की कल्पनाएँ करते । कोई उनको सिद्धिदायक यन्त्र बतलाता, कोई देवताओं का लिखा हुआ मन्त्र मानता तो कोई उन्हें पृथ्वी में गड़े हुए धन का बोजक समझता। ऐसी अज्ञानता के कारण लोग इन शिलालेखों और ताम्रपत्रों आदि का कोई मूल्य ही नहीं जानते थे। टूटे-फूटे जीर्ण मन्दिरों आदि के शिलालेखों को तोडफोड़ कर साधारण पत्थर के टुकड़ों की तरह उपयोग किया जाता था ; कोई उनको सीढ़ियों में चुनवा लेता था तो कोई उन्हें भाँग घोंटने व चटनी बाँटने के काम में लेता था। अनेक प्राचीन ताम्रपत्र साधारण तांबे के भाव कसेरों के बेच दिये जाते थे और वे उन्हें गला जलाकर नये बर्तन तैयार करा लेते थे। लोगों की नासमझी अभी भी चाल है। मैंने अपने भ्रमण के समय कितने ही शिलालेखों की ऐसी ही दुर्दशा देखी है। कितने ही जैन मन्दिरों के शिलालेखों पर से चिपकाया हआ चना मैंने अपने हाथों से उखाड़ा है। कुछ वर्ष पहले की बात है. खम्भात के पास किसी गाँव का रहने वाला एक ब्राह्मण तीन चार ताम्रपत्र लेकर मेरे पास आया। उसकी जमीन के बारे में सरकार में कोई केस चल रहा था इसलिए घर में पड़े हए ताम्रपत्रों में उस जमीन के सम्बन्ध में कुछ लिखा होगा यह समझ कर उन्हें मेरे पास पढ़वाने को लाया था। उनमें से एक पत्र के बीचों-बीच दो इन्च व्यास वाला एक गोल टुकड़ा कटा हुआ था जिससे उस लेख का बहुत सा महत्वपूर्ण भाग जाता रहा था। इस सम्बन्ध में पूछने पर उसने मुझे बताया कि कुछ महिनों पहले एक लोटे का पैदा बनवाने के लिए वह टुकड़ा काट लिया गया था। ऐसी अनेक घटनाएँ आज भी देखने को आती हैं। ऐसी ही दुर्दशा हमारे प्राचीन ग्रन्थों की हुई है। कितने ही युगों से बिना सार-सम्हाल के कोटड़ियों में पड़े हुए हजारों हस्तलेखों को चूहों ने उदरसात कर लिया है तो कितने ही । ग्रन्थ छप्परों में से पड़ते हए पानी के कारण गलकर मिट्टी में मिल गये हैं। अनेक गुरुओं के अयोग्य चेलों के हाथों भी हमारे साहित्य की कम दुर्दशा नहीं हुई है। RASI जया awnamaAAJanamaAAAAAAAAAALAAMNAGIMAaiawaiiaasandramaANJANASAMAnummaranMASAIRAAJAMAASARAISA आचारबरात्रिआचारबराबरका श्राआवर अनाआन व आई MINIYAmwainm YINN Yie YATH vtaMINIMNPy Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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