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इतिहास और संस्कृति
सूत्र सम्बन्धी व्यापक अध्ययन, प्रगल्भ पाण्डित्य तथा प्रकृष्ट प्रज्ञा होनी चाहिए । अतः यदि तीन वर्ष के दीक्षित श्रमण में भी ये योग्यताएँ हों तो वह उपाध्याय-पद का अधिकारी हो सकता है।
आचार्य पद के लिए योग्यता का आधार आचार-कौशल, शासन-नै पुण्य, ओजस्वी व्यक्तित्व, व्यवहार-पटुता, शास्त्रों का तलस्पर्शी सूक्ष्म ज्ञान तथा जीवन के अनुभव हैं। इनमें अनुभव के अतिरिक्त जो विशेषताएं बतलाई गई हैं, वे काल-सापेक्ष कम हैं, क्षयोपशम या संस्कार-सापेक्ष अधिक । कतिपय व्यक्ति जन्मजात प्रभावशील, ओजस्वी और कर्तव्य-कुशल होते हैं तथा कतिपय ऐसे होते हैं कि वर्षों के अभ्यास तथा चिर प्रयत्न के बावजूद इस प्रकार का कुछ भी वैशिष्टय अजित नहीं कर पाते । प्रत्येक कार्य में पुरुषार्थ और प्रयत्न तो चाहिए पर तरतमता की दृष्टि से वस्तुतः इन विशेषताओं का सम्बन्ध प्रयत्नों से कम और संस्कारों से अधिक है।
आचार्य सस्कारी और पुण्यात्मा होते हैं। उनमें ये विशेषताएं स्वाभाविक होती हैं। पर, जीवन का अनुभव भी चाहिए। अतः उनके लिए कम से कम पांच वर्ष के दीक्षा-काल की अनिवार्यता बतलाई गई। संस्कारी एवं प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति के लिए जीवन के बहमुखी अनुभव अजित करने की दृष्टि से यह समय कम नहीं है।
प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदक के पद जिस प्रकार के उत्तरदायित्व से जुड़े हैं, उनके निर्वहण के लिए बहुत ही अनुभवी व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो जीवन के अनुकूल-प्रतिकूल, मधुर-कटु, प्रियअप्रिय जैसे अनेक क्रम देख चुका हो, परख चुका हो । अनुभव-परिपक्वता की दृष्टि से उन पदों के अधिकारी होने योग्य श्रमण के लिए जो कम से कम आठ वर्ष का दीक्षाकाल स्वीकार किया गया है, वह वास्तव में आवश्यक है।
इसी प्रसंग में व्यवहार सूत्र में एक विशेष बात कही गई है। बताया गया है कि विशेष परिस्थिति में एक दिन के दीक्षित श्रमण को भी आचार्य या उपाध्याय का पद दिया जा सकता है। यह बात विशेषतः निरुद्ध-वास-पर्याय-श्रमण को उद्दिष्ट कर कही गई है। निरुद्ध-वास-पर्याय का आशय उस श्रमण से है, जो पहले श्रमण-जीवन में था पर दुर्बलता से उससे पृथक हो गया । यद्यपि ऐसा व्यक्ति संयम से गिरा हुआ तो होता है पर उसके पास साधु-जीवन का लम्बा अनुभव रहता है। यदि वह सही रूप में आत्मप्रेरित होकर पुनः श्रामण्य अपना लेता है तो उसके विगत श्रमण-जीवन का अनुभव उसके लिए, संघ के लिए क्यों नहीं उपयोगी होगा ।
आचार्य का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को लिए हुए होता है । अतः उक्त प्रकार के एक दिवसीय दीक्षित साधु में, जिसे आचार्य या उपाध्याय का पद दिया जाना विहित कहा गया है, और भी कुछ असाधारण विशेषताएं होनी चाहिए, जिनका निम्नांकित रूप में उल्लेख किया गया है---
वह स्थविर ऐसे कुल का हो, जिसके प्रति संघ की प्रतीति हो अथवा जो संघ के लिए दान, सेवा आदि की भावना के कारण प्रीतिकारक हो, जो स्थेय हो-प्रीतिकर होने के नाते जो संघ की चिन्ता में प्रमाणभूत हो, जो संघ के लिए, सबके लिए वैश्वासिक-विश्वास-स्थान हो, सम्मत हो, कठिनाई या संघर्ष आदि की स्थिति में सहयोग करने के नाते जो संघ के लिए प्रमोदकारक हो, जो संघ के लिए अनुमत हो
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