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इतिहास और संस्कृति
श्रमण धर्म के लोक संग्राहक रूप पर प्रश्नवाचक चिन्ह इसलिए लगा हुआ है कि उसमें साधना का फल मुक्ति माना जाता है—ऐसी मुक्ति जो वैयक्ति उत्कर्ष की चरम सीमा है। बौद्ध धर्म का निर्वाण भी वैयक्तिक है । बाद में चलकर बौद्ध धर्म की एक शाखा महायान ने सामूहिक निर्वाण की चर्चा की। मेरी मान्यता है कि जैन-दर्शन की वैयक्तिक मुक्ति की कल्पना सामाजिकता की विरोधिनी नहीं है। क्योंकि श्रमण धर्म ने मुक्ति पर किसी का एकाधिकार नहीं माना है। जो अपने आत्म-गुणों का चरम विकास कर सकता है, वह इस परम पद को भी प्राप्त कर सकता है और आत्मगुणों के विकास के लिए समान अवसर दिलाने के लिए जैनधर्म हमेशा संघर्ष शील रहा है।
भगवान महावीर ने ईश्वर के रूप को एकाधिकार के क्षत्र से बाहर निकाल कर समस्त प्राणियों की आत्मा में उतारा । आवश्यकता इस बात की है कि प्राणी साधना पथ-पर बढ़ सके । साधना के पथ पर जो बन्धन और बाधा थी, उसे महावीर ने तोड़ गिराया। जिस परम पद की प्राप्ति के लिए वे साधना कर रहे थे, जिस स्थान को उन्होंने अमर सुख का घर और अनन्त आनन्द का आवास माना, उसके द्वार सबके लिए खोल दिये । द्वार ही नहीं खोले, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता भी बतलाया।
जैन दर्शन में मानव-शरीर और देव शरीर के सम्बन्ध में जो चिन्तन चला है, उससे भी लोकसंग्राहक वृत्ति का पता चलता है। परम शक्ति और परमपद की प्राप्ति के लिए साधना और पुरुषार्थ की जरूरत पड़ती है। यह पुरुषार्थ कर्तव्य की पुकार और बलिदान की भावना मानव को ही प्राप्त है, देव को नहीं। देव-शरीर में वैभव विलास को भोगने की शक्ति तो है पर नये पुण्यों के संचय की ताकत नहीं। देवता जीवन-साधना के पथ पर बढ़ नहीं सकते, केवल उसकी ऊँचाई को स्पर्श कर सकते हैं। कर्मक्षेत्र में बढ़ने की शक्ति तो मानव के पास ही है । इसीलिए जैनधर्म में भाग्यवाद को स्थान नहीं है । वहाँ कर्म की ही प्रधानता है। वैदिक धर्म में जो स्थान स्तुति-प्रार्थना और उपासना को दिया गया है वही स्थान श्रमण धर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को मिला है।
समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि श्रमण धर्म का लोकसंग्राहक रूप स्थल की अपेक्षा सूक्ष्म अधिक है, बाह्य की अपेक्षा, आन्तरिक अधिक है। उसमें देवता बनने के लिए जितनी तड़प नहीं, उतनी तड़प संसार को कषाय आदि पाप कर्मों से मुक्त कराने की है । इस मुक्ति के लिए वैयक्तिक अभिक्रम की उपेक्षा नहीं की जा सकती जो जैन साधना के लोक संग्राहक रूप की नींव है। जैनधर्म-जीवन-सम्पूर्णता का हिमायती:
सामान्यत: यह कहा जाता है कि जैनधर्म ने संसार को दुखमूलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन में संयम और विराग की अधिकता पर बल देकर उसकी अनुराग भावना और कला प्रेम को कुठित किया । पर यह कथन साधार नहीं है, भ्रांतिमूलक है। यह ठीक है कि जैनधर्म ने संसार को दुखमूलक माना, पर किसलिए ? अखण्ड आनन्द की प्राप्ति के लिए, शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए। यदि जैनधर्म संसार को दुखपूर्ण मान कर ही रुक जाता, सुख प्राप्ति की खोज नहीं करता, उसके लिए साधना मार्ग की व्यवस्था नहीं देता तो हम उसे निराशावादी कह सकते थे, पर उसमें तो मानव को
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