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प्राकृत साहित्य की विविधता और विशालता आज भी लोकव्यवहार में प्रचलित हैं । प्राकृत ग्रंथों की कहावत जो राजस्थान में अब भी बोली जाती हैं, उनके सम्बन्ध में डा० कन्हैयालाल सहल का शोध-प्रबन्ध द्रष्टव्य है ।
प्राकृत साहित्य का सांस्कृतिक महत्व सर्वाधिक है। क्योंकि जनजीवन का जितना अधिक वास्त विक चित्रण प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य में मिलता है, उतना संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता। क्योंकि संस्कृत के विद्वान अधिकांश राज्याश्रित एवं नगरों में रहने वाले थे अतः गाँवों और साधारण नागरिकों का स्वाभाविक चित्रण वे अधिक नहीं कर पाये । अलंकारों आदि से संस्कृत महाकवियों ने अपने काव्यों को बोझिल बना दिया, क्योंकि उनका उद्देश्य पांडित्य-प्रदर्शन ही अधिक रहा। जबकि प्राकृत साहित्य के प्रधान निर्माता जैनमुनिगण, गाँवों में और जनसाधारण में अपने साहित्य का प्रचार अधिक करते रहे हैं, इस दृष्टि से लोकरुचि को ध्यान में रखते हुए लोक-कथाओं, द्रष्टान्तों को सरल भाषा में लिखने का प्रयास करते थे । जिससे साधारण लोग भी अधिकाधिक लाभ उठा सकें। डा० मोतीचन्द्र जी आदि ने प्राकृत साहित्य की प्रशंसा करते हुए कुवलयमाला आदि का सांस्कृतिक महत्त्व बहुत अधिक बतलाया है । अत: भारतीय जन-जीवन और लोकप्रचलित रीति-रिवाज, विश्वास आदि के सम्बन्ध में प्राकृत साहित्य से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हो सकती है ।
बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि मध्यकाल में संस्कृत एवं लोक-भाषाओं का इतना अधिक प्रभाव बढ़ जाने पर भी प्राकृत साहित्य के निर्माण की परम्परा निरन्तर चलती रही है, किसी भी शताब्दी का कोई चरण शायद ही ऐसा मिले जिसमें थोड़ी-बहुत प्राकृत रचनाएँ न हुई हों, वर्तमान में भी वह परम्परा चालू है । वर्तमान आचार्य 'विजयपद्मसूरि' ने प्राकृत में काफी लिखा है । विजयकस्तूरिसूरि ने भी कई संस्कृत ग्रन्थों को प्राकृत में बना दिया है । तेरापन्थी मुनिश्री चन्दनमुनि जी रचित संस्कृत रणवाल कहा अभी-अभी प्रकाशित हुई है और जयाचार्य का प्राकृत जीवनचरित्र जैन भारती में निकल रहा है । और भी कई साधु-साध्वी प्राकृत में लिखते हैं तथा भाषण देते हैं और प्राकृत के अभ्यास
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निरन्तर लगे हुए है । पर अभी कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं लिखा गया जिसमें प्रत्येक शताब्दी में बनी हुई रचनाओं की कालक्रमानुसार सूची दी गई है । मेरी राय में ऐसा एक ग्रन्थ शीघ्र ही प्रकाशित करना चाहिए। जिससे ढाई हजार वर्षों की प्राकृत साहित्य की प्रगति और अविच्छिन्न प्रवाह की ठीक जानकारी मिल सके ।
प्राकृत के मध्यकालीन बहुत से ग्रन्थ अप्रकाशित हैं । उनके प्रकाशन की योजना बनानी चाहिए। कुछ प्राकृत साहित्य परिषद से प्रकाशित हुए हैं। पर मेरा सुझाव यह है कि सबसे पहले प्राकृत की छोटी-छोटी रचनाएँ जितनी भी हैं, उनका संग्रह काव्यमाला संस्कृत सिरीज की तरह प्रकाशित किया जाये । अन्यथा वे थोड़े समय में ही लुप्त हो जायेंगी। अभी तक न तो उनकी जानकारी ही ठीक से प्रकाश में आई है, न उनके संग्रह ग्रन्थ ही अधिक निकलते हैं । १२वीं शताब्दी से ऐसी अनेक संग्रह प्रतियाँ मिलने लगती हैं और फुटकर ग्रन्थ भी हजारों मिलते हैं । जो अद्यावधि सर्वथा उपेक्षित-से रहे है । प्राकृत से अपभ्रंश और उससे प्रान्तीय भाषाएँ निकलीं यह भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि परवर्ती हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती रचनाओं में उन रचनाओं की भाषा को कवियों ने स्वयं प्राकृत
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आपाय प्रवष अभिनन्दन ग्राआनन्द
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