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________________ प्राकृत भाषा का व्याकरण परिवार ४६ तीन रूप---तद्भव, तत्सम और देशज बतलाये हैं। तीनों लिंग और विभक्तियों का विधान संस्कृत के समान ही पाया जाता है । प्रथम पाद के ५वें सूत्र से अन्तिम ३५वें सूत्र तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्ति रूपों का निरूपण किया है। द्वितीय पाद के २६ सूत्रों में स्वर-परिवर्तन, शब्दादेश और अव्यय का कथन किया गया है । तृतीय पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजन-परिवर्तन के नियम दिये गये हैं। चतुर्थ पाद में केवल चार सूत्र ही हैं। इनमें अपभ्रश का लक्षण, अधोरेफ का लोप न होना, पैशाची की प्रवृत्तियाँ, मागधी की प्रवृत्तियाँ, र और स के स्थान पर ल और श् का आदेश, शौरसेनी में त के स्थान पर विकल्प के द का आदेश किया गया है। (३) प्राकृतव्याकरण-"सिद्धहेमशब्दानुशासन' नाम का आचार्य श्री हेमचन्द्र रचित व्याकरण है । यह व्याकरण सिद्धराज को अर्पित किया है और हेमचन्द्र द्वारा रचित है, इसलिए इसे "सिद्धहेम व्याकरण" नाम दिया गया है । इस व्याकरण में सात अध्याय संस्कृत शब्दानुशासन पर और आठवें अध्याय में प्राकृत भाषा का अनुशासन लिखा गया है । आचार्य हेमचन्द्र का यह प्राकृत व्याकरण उपलब्ध समस्त प्राकृत व्याकरणों में सबसे अधिक परिष्कृत, सुव्यवस्थित और परिपूर्ण है। सिद्धहेमव्याकरण का समय १०८८-११७२ ईस्वी का माना जाता है। इसका सम्पादन १६२८ में पी० एल० वैद्य ने किया है। दूसरे अनेक विद्वानों ने भी इसका सम्पादन किया है। इस व्याकरण में प्राकृत की छः उप-भाषाओं पर विचार किया है---(१) महाराष्ट्री, (२) शौरसेनी, (३) मागधी, (४) पैशाची, ५) चलिका, पैशाची और (६) अपभ्रंश । अपभ्रंश भाषा का नियमन ११६ सूत्रों में स्वतन्त्र रूप से किया है। पश्चिमी प्रदेश के प्राकृत के विद्वानों में आचार्य हेमचन्द्र का नाम सर्वप्रथम है। जिस प्रकार वररुचि के व्याकरण की भाषा शुद्ध महाराष्ट्री मानी जाती है, उसी प्रकार जैन आगमों के प्रभाव के कारण हेमचन्द्र की प्राकृत को जैन महाराष्ट्री प्राकृत कहा जाता है। हेमचन्द्र ने स्वयं ही बृहत और लघु वत्तियों में अपने व्याकरण की टीका प्रस्तुत की है। लघु-वृत्ति "प्रकाशिका" के नाम से मिलती है । उदयसोभाग्य गणिन् द्वारा "प्रकाशिका' पर की गई एक टीका "हेमप्राकृतवृत्ति दुण्ढिका" अथवा "व्युत्पत्तिवाद" नाम से मिलती है। जिसे कुछ विद्वान् “प्राकृत प्रक्रिया वत्ति' भी कहते हैं । हेमचन्द्र के आठवें परिच्छेद पर नरेन्द्रचन्द्रसूरि रचित "प्राकृत प्रबोध टोका" उपलब्ध होती है। इस व्याकरण में कहीं-कहीं कश्चित्, केचित्, अन्ये इत्यादि प्रयोग से मालूम पड़ता है किहेमचन्द्र ने अपने से पूर्व के व्याकरणकारों से भी सामग्री ली होगी। हेमचन्द्र की शैली चण्ड और वररुचि से ज्यादा परिष्कृत है। हेमचन्द्र ने प्राचीन परम्परा को स्वीकार करके अनेक नये अनुशासन उपस्थित किये हैं। 9422 IMAGE IPiu UPS onsuaariARAAAAA आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवआभार श्रीआनन्दम ग्रन्थ श्रीआनन्द अन्य NAVANT.vMcMw.instrumentrum.ww-momix Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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