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________________ प्राकृतभाषा: उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद आठवें अध्याय में आचार्य ने प्राकृत-व्याकरण का वर्णन किया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राकृत-व्याकरण का विश्लेषण ग्रन्थ का मुख्य विषय नहीं था । जैसा कि कहा गया है, युग-प्रवाह को देखते उन्हें सम्भवतः यही समीचीन लगा हो कि संस्कृत के माध्यम से प्राकृत तक पहुँचा जाए। प्राकृत की सीधे व्याख्या करना उन्हें रुचिकर भी नहीं लगा होगा, क्योंकि बोलचाल में प्राकृत का व्यवहार न रहा, इतना ही नहीं, बल्कि उसके स्वतन्त्र अध्ययन की प्रवृत्ति भी क्षीण हो चुकी थी । उसका अध्ययन संस्कृत - सापेक्ष बन ही गया था। लगता है, इसीलिए उन्हें संस्कृत के आधार को स्वीकार करना समयानुकूल और अध्ययनानुकूल प्रतीत हुआ है । शब्दों के संस्कृत रूप इन-इन परिवर्तनों से प्राकृत रूप, यही प्राकृतभाषा में प्रवेश पाने का सुगमतम मार्ग था । अस्तु, इसी परिपार्श्व में उन्हें संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहना उचित लगा है, यह सुस्पष्ट प्रतीत होता है । वस्तुत: आचार्य हेमचन्द्र प्राकृत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भ्रान्त नहीं थे, अपने काव्यानुशासन की पहली कारिका में वे कहते हैं अकृत्रिमस्वादुपदां परमार्थाभिधायिनीम् । सर्वभाषापरिणतां, जनीं वाचमुपास्महे || अलंकारचूड़ामणि नामक स्वोपज्ञ व्याख्या में इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं"अकृत्रिमाणि - असंस्कृतानि अतएव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्यामिति विग्रहः ।" .....तथा सुरनरतिरश्चां विचित्रासु भाषासु परिणतां तन्मयतां गतां सर्वभाषापरिणताम् । एकरूपाऽपि हि भगवतोऽर्धमागधी भाषा वारिदविमुक्तवारिवद् आश्रयानुरूपतया परिणमति । " इस बात को और पुष्ट करने के लिए वे निम्नांकित पद्य भी वहीं उद्धृत करते हैं— देवा देवीं नरा नारों शबराश्चापि शाबरीम् । तिर्यञ्चोऽपि हि तैरश्वों मेनिरे भगवद्गिरम् ॥ हेमचन्द्र द्वारा स्वयं अपनी व्याख्या में किये गये इस विवेचन से स्पष्ट है कि वे संस्कृत को कृत्रिम भाषा मानते थे । प्राकृत उनकी दृष्टि में अकृत्रिम स्वाभाविक या प्राकृतिक भाषा थी । अस्तु, इस विचार - धारा में विश्वास रखने वाला मनीषी यह स्थापना कैसे कर सकता है कि प्राकृत संस्कृत से निकली है । ११ हेमचन्द्र के इस व्याकरण की गुजरात में तथा अन्यत्र बहुत प्रशस्ति हुई । इस सम्बन्ध में निम्नांकित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है किं स्तुमः शब्दपाथोधेर्हेमचन्द्रयतेर्मतिम् । एकेनापि हि येनेदृक् कृतं शब्दानुशासनम् ॥ सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् जिनमण्डल ने भी इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किये हैंजयसिंहदेववयणाउ निम्मियं सिद्धहेमवागरणं । नीसे ससद्द लक्खण निहाणमिमिणा देणं ॥ [जर्यासहदेववचनात् निर्मितं सिद्धहैमव्याकरणम् । निःशेषशब्दलक्षणनिधानमनेन मुनीन्द्रेण ॥ ] Jain Education International contr For Private & Personal Use Only [D CURR ॐ आसव अमिश दन आनन्द अभि 麗 www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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