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कर्म-सिद्धान्त : भाग्य निर्माण कला
माग्य निमाण कला
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जया या
मोक्ष है। चिकित्साशास्त्र का मुख्य उद्देश्य भी आरोग्य या स्वास्थ्यप्राप्ति है। शरीर या मन का विजातीय द्रव्यों के प्रभाव या विकारों से मुक्ति ही आरोग्य या स्वास्थ्य कहलाता है। इस प्रकार चिकित्साशास्त्र और कर्म-सिद्धान्त, इन दोनों में उद्देश्य या लक्ष्य की दृष्टि से भी आश्चर्यजनक समानता है, एक ही रूप है-निविकार-स्वस्थ अवस्था की प्राप्ति ।
जिस प्रकार शरीर के निर्माण एवं शारीरिक चिकित्सा में घनिष्ट सम्बन्ध है । इसी प्रकार भाग्य-निर्माण और आत्मा के विकार दूर करने की प्रक्रिया (आध्यात्मिक चिकित्सा) में भी घनिष्ट सम्बन्ध है। कर्मवाद भाग्यनिर्माण और आध्यात्मिक चिकित्सा इन दोनों को एक साथ प्रस्तुत करता है। कारण कि जैसे-जैसे आत्मा के विकार दूर होते जाते हैं, क्षीण होते जाते हैं वैसे-वैसे भाग्य का उत्थान होता जाता है। कर्म-सिद्धान्त का उपयोग कर मानव अपने जीवन का सर्वांगीण विकास कर सकता है। अपने आन्तरिक विलक्षण अतीन्द्रिय शक्तियों को प्रकट कर सकता है। अपने शारीरिक और मानसिक विकारों को दूर कर सकता है । स्वर्ग के साम्राज्य में प्रवेश कर मुक्ति के महल में पहुंच सकता है । इसी जीवन में स्थायी शान्ति एवं परमानन्द की प्राप्ति कर सकता है।
कर्मवाद और मनोविज्ञान आत्मा का सब से अधिक निकट का सम्बन्ध मन से है। अतः कर्म-सिद्धान्त का सब से निकट का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है। मनोविज्ञान की शाखा परामनोविज्ञान है । जिसका कार्य है मन के गहरे अज्ञात स्तरों की खोज करना। परामनोविज्ञान और कर्म-सिद्धान्त में इतनी समानता है कि ये दोनों प्रायः एक ही से प्रतीत होते हैं। महान मनोवैज्ञानिक डा० चार्ल्स युग महाशय मन को अमर मानते हैं। उनका कथन है कि शरीर नष्ट हो जाता है परन्तु मन विद्यमान रहता है। युंग महाशय' ने अज्ञात मन के स्वरूप का जैसा वर्णन किया है वह जैन आगमों में कर्म समुदायधारी कार्मण शरीर से बहुत मिलता है। परामनोविज्ञान अभी अपनी शैशव अवस्था ही में है फिर भी उसकी जो खोजें सामने आई हैं उन्होंने कर्मवाद के अनेक गहन सिद्धान्तों को पुष्ट कर दिया है एवं उनकी उपयोगिता को भी प्रस्तुत किया है।
कर्म की रचना भावों व प्रवृत्तियों से होती है। भावों से सम्बन्धित ज्ञान की खोज ही मनोविज्ञान का विषय है । अतः कर्मवाद में मनोविज्ञान गर्मित ही है। अन्तर केवल यही है कि कर्मसिद्धान्त मनोविज्ञान के समस्त पक्षों को एवं उससे भी परे स्थित आत्मा के स्वरूप को प्रस्तुत करता है जबकि आधुनिक मनोविज्ञान अभी मन के भी अत्यल्प क्षेत्र का ज्ञान कर पाया है इसलिए अधूरा है। जैसे-जैसे मनोविज्ञान की खोज आगे बढ़ती जायेगी वैसे-वैसे वह कर्म सिद्धान्तों को स्थान देता जायेगा।
लेख की सीमा को ध्यान में रखकर मैंने प्रस्तुत लेख में कर्म-सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिक रूप को यत्र-तत्र केवल संकेतात्मक रूप में ही प्रस्तुत किया है। कर्म-सिद्धान्त का क्षेत्र इतना व्यापक है व इसके इतने पक्ष हैं कि इन सबका मनोवैज्ञानिक विवेचन किया जाय तो सैकड़ों ग्रन्थ बन जाने की सम्भावना है । यह कार्य किसी व्यक्ति विशेष का न होकर सम्पूर्ण समाज का है। अतः मेरा समस्त समाज के तत्त्ववेत्ताओं व कर्णधारों से निवेदन है कि वे इसमें अपना योग देकर विश्व का कल्याण करें।
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The Modern man in Search of a Soul, p. 213
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