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धर्म और दर्शन
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बाया
कर्मसिद्धान्त की व्यापकता
अन्य समस्त चिकित्सा शास्त्रों से आध्यात्मिक चिकित्सा शास्त्र का क्षेत्र व्यापक है। कारण कि नेत्र चिकित्साशास्त्र का क्षेत्र नेत्र तक सीमित है, शारीरिक चिकित्साशास्त्र का क्षेत्र शरीर तक सीमित है जिसमें नेत्र, कान, नाक, हाथ, पैर आदि सभी सम्मिलित हैं, अतः नेत्र चिकित्सा से इसका क्षेत्र अधिक व्यापक है । शारीरिक चिकित्सा से मानसिक चिकित्सा का क्षेत्र अधिक व्यापक है। शारीरिक रोगों का मन से घनिष्ट संबंध होने में मानसिक चिकित्सा में मन के विकारों की चिकित्सा के साथ शारीरिक रोगों की चिकित्सा भी आ जाती है। मानसिक चिकित्सा से आध्यात्मिक चिकित्सा का क्षेत्र अति व्यापक है। इसमें उपर्युक्त सब प्रकार की चिकित्साएँ तो आ ही जाती हैं कारण कि शरीर और मन के रोगों का मूल कारण तो आत्मा के विकार रूप कर्म ही हैं। साथ ही आत्मा के जन्म, मरण, रोग-शोक, सुख-दुःख, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों, सफलता-विफलता आदि जीवन से संबंधित समस्त घटनाओं की उत्पत्ति का संबंध भी प्राणी के अपने कर्मों से ही हैं। अतः जीवन से संबंधित प्रत्येक क्षेत्र का समावेश आध्यात्मिक चिकित्सा में हो जाता है। - आधुनिक मनोविज्ञान ने भी कर्म सिद्धान्त के इस तथ्य को स्वीकार किया है कि प्राणी के तन-मन एवं जीवन की समस्त स्थितियों का निर्माण उसके अंतस्तल में छिपे भावों के अनुसार ही होता है। हृदय में भय का भाव उत्पन्न होते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आंतें कार्य करना बंद कर देती हैं इसी कारण से जंगल में शेर को सामने देखते ही पाजामे में टट्री-पेशाब लग जाते हैं। क्रोध उत्पन्न होने पर खून खौलने लग जाता है। शरीर का ताप और रक्त का चाप बढ़ जाता है। मान का मद चढ़ते ही व्यक्ति अपनी यथार्थ स्थिति से विस्मृत हो अनाप-शनाप खर्च करने व बलिदान होने को तैयार हो जाता है । जोश में होश खो बैठता है और ऐसा आचरण करने लगता है जो स्वयं के लिए घातक है। प्रियजन की मृत्यु के शोक से पाचन शक्ति क्षीण हो जाती है। मुंह में भोजन-ग्रास लेते ही उल्टी होने लगती है। चिन्ता से हृदयरोग, अलसर, रक्तचाप, दुर्बलता, विक्षिप्तता का होना, सर्व साधारण को विदित है। यह तो हुई (हृदय, फेफड़े, रक्त, पाचन आदि) शारीरिक अंगों व संस्थानों की संचालन क्रिया पर भावनाओं का प्रभाव पड़ने की बात ।
परन्तु इससे भी अधिक विस्मयकारी बात तो आधुनिक वैज्ञानिकों का यह कथन है कि भावों का प्रभाव केवल शरीर के श्वसन, पाचन, रक्त संचरण आदि संस्थानों की संचालन क्रिया पर तो पड़ता ही है साथ ही उनकी संरचना पर भी पड़ता है। उनका कथन है कि व्यक्ति के मस्तिष्क, आँख, नाक, कान, बाल, रक्त, हाथ-पैर की संरचना तथा हाथ-पैर-मस्तिष्क की रेखाओं तक के निर्माण में भी उस व्यक्ति के भावों का ही हाथ है। इनके आकार-प्रकार के निर्माण के साथ जिन तत्वों से ये अंग बने हैं उन तत्वों में भी भावों के साथ रासायनिक परिवर्तन होते रहते हैं। इधर जिस क्षण व्यक्ति के भावों में परिवर्तन होता है उधर उतने ही अंशों में उन तत्वों में भी रासायनिक परिवर्तन हो जाता है जिससे मस्तिष्क, रक्त, बाल, हड्डी आदि का निर्माण हुआ है।
रूस में एक वैज्ञानिक है जो मृत मनुष्य की खोपड़ी की हड्डियों को देखकर, उस मनुष्य की जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत की सब घटनाओं को इस प्रकार पढ़ लेते हैं मानों वे उसकी आत्मकथा पढ़ रहे हों। यहाँ तक कि वह व्यक्ति मरते समय किस भावावेश में था तथा किस प्रकार के विष देने से मरा यह भी बतला देते हैं। आज किसी भी मनुष्य के बाल की रासायनिक क्रियाओं का विश्लेषण करके, उसके स्वभाव की, अपराध आदि वृत्तियों का पता चलाने का विज्ञान भी विकसित हो गया है। हड्डी और बाल दोनों शरीर में सब से अधिक ठोस एवं सब से कम
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