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आचार्य प्रव आप आमद आमदन श्री आनन्द
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* आचार्य प्रव श्री आनन्द
३७६ धर्म और दर्शन
संकेत करती है । अन्तर केवल इतना है कि धर्म में ईश्वर या ब्रह्म का स्वरूप निरपेक्ष एवं निरालम्ब स्थिति का द्योतक है जिसे सिद्धों तथा नाथों की 'निरति' दशा का पर्याय माना जा सकता है।
भौतिकी से जीव-विज्ञान तक की यात्रा एक दिलचस्प दशा की ओर संकेत करती है। इस यात्रा के प्रकाश में हम क्रमश: एक ब्रह्मांडीय विषय से एक संकीर्ण क्षेत्रीय विषय का साक्षात्कार करते हैं। भौतिकी और ज्योतिष के द्वारा हम एक विस्तृत और व्यापक विश्व के रहस्यों के प्रति सचेत होते हैं, न कि 'विश्व' के केवल एक कोने का जिस पर कि हम रह रहे हैं । धर्म में केवल पृथ्वी की ही कल्पना नहीं है, पर पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य लोकों तथा नक्षत्रों की भी एक बलवान परम्परा प्राप्त होती है जो ऊपर से देखने पर एक वितंडा के समान लगती हो, पर गहराई में जाने पर यह स्पष्ट होता है कि ये सभी धार्मिक कल्पनाएं विश्व के एक अत्यंत व्यापक परिवेश को उजागर करती हैं । सृष्टि रचना में इस व्यापक विश्व की संरचना पर विचार किया जा चुका है जो विश्व की गहनता के साथ दिकू और काल के चतुआयामिक विश्व के अगाध स्वरूप को उद्घाटित करती है। विज्ञान भी विश्व की इसी अगाधता का अवगाहन करना चाहता है और धर्म तथा दर्शन का ध्येय भी इसी अगाधता का साक्षात्कार करना है— अंतर केवल पद्धति और दृष्टि का है। सृष्टि को इस व्यापकता को ध्यान में रखकर इसके प्रयोजन का अनुसंधान करना धर्मशास्त्र का विषय है। परन्तु विज्ञान अनिश्चितता के सिद्धांत के द्वारा किसी अंतिम प्रयोजन की घोषणा नहीं कर सकता है मैं तो यह मानता हूँ कि सृष्टि स्वयं में एक प्रयोजन है, फिर उसके प्रयोजन का क्या तात्पर्य ? इसी प्रकार मानव स्वयं अपना ही प्रयोजन है और ईश्वर भी अपना ही प्रयोजन है । विकासवादी धर्मशास्त्र “मानव अपना स्वयं ही प्रयोजन है" के प्रत्यय को एक तार्किक परिप्रेक्ष्य में रखता है क्योंकि विकासवाद 'मानव' को ही अपना प्रयोजन मानता है और चूंकि मानव नामधारी प्राणी के पास 'मन' का एक अत्यंत विकसित रूप प्राप्त होता है जो मानवेतर प्राणियों में अपेक्षाकृत कम विकसित है । विकास क्रम में, जहाँ एक ओर भौतिक संगठन का पारिमार्जन हुआ है, वहीं दूसरी ओर 'मन' या चेतना का भी क्रमिक विकास हुआ है। यहां पर यह तथ्य भी प्रकट होता है कि द्रव्य या पदार्थ और मन या चेतना का विकास समानान्तर ही हुआ है अथवा द्रव्य ही मन है और मन ही द्रव्य है । पदार्थ और मन का द्वैत, आज के वैज्ञानिक चिंतन में मान्य नहीं है और यह मान्यता धर्म और दर्शन के क्षेत्रों में भी उतनी ही स्वीकार्य है जितनी आधुनिक वैज्ञानिक दर्शन में । पदार्थ और ऊर्जा, द्रव्य और मन, प्रकृति और पुरुष, शिव और शक्ति आदि युगल रूपों में द्वैत के माध्यम से 'अद्वैत' की ही स्थापना होती है। विकासवादी धर्मशास्त्र इसी 'अद्वैत' को रूपायित करता है जो चेतना के क्रमिक आरोहण का रूप है । यही बात अवतारों के बारे में भी सत्य है। जिसकी ओर प्रथम ही संकेत हो चुका है।
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यहाँ पर एक अन्य स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है मार्गन ने विकासपरम्परा के साथ दैवी शक्ति की कल्पना की है। मार्गन एक जीव-विज्ञानी भी था और साथ ही, धार्मिक भावना से युक्त चितक भी। यही कारण है कि उसने विकास क्रम में एक देवी प्रयोजन देखा है। उसका कहना है-"कभी-कभी ऐसा होता है कि विशिष्ट प्रकार से व्यवस्थित किए गए पदार्थों का संकलन एक नवीन गुण-धर्म को प्राप्त कर लेता है जो व्यक्तिगत रूप में उन पदार्थों में उपलब्ध नहीं होता है और न उन पदार्थों से 'उसका' निगमन ही किया जा सकता है ।" यहां पर ऐसा लगता है कि मार्गन की 'देवी शक्ति' निरपेक्ष है क्योंकि वह पदार्थों की संगठना से अलग है
१ इमरजेंट एवोल्यूशन, लॉयड मार्गन, पृ० ५०
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