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जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद
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'निरंजन' पद प्राप्त करने के लिए मन किस प्रकार से परमेश्वर में एकाकार और समरस हो जाता है, यह योगीन्दु मुनि द्वारा प्रस्तुत वर्णन में दृष्टव्य है
मणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स ।
बीहि वि समरसि हहि पुज्ज चडावउं कस्स ॥३६ इसी प्रकार मुनि रामसिंह के लिए यह समस्या खड़ी हो जाती है कि आत्मा और परमात्मा के मिलन पर किसे नमस्कार किया जाये ?3७ शारीरिक दुःखों का आभास तभी तक होता है, जब तक यह समरसता नहीं आती
देहमहेलो एह बढ तउ सतावइ ताम ।
चित्तु णिरंजणु परिणि सिंह समरसि होइ ण जाम ॥३८ छोहल तो निश्चयनय के रस में इतने सरावोर हो गये कि उन्हें आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का आभास-सा हो गया। फलतः वे कहने लगे कि मैं दर्शन-ज्ञान-चारित्र हूं, देहप्रमाण हूं, अखण्ड हूं, परमानन्द में विलास करने वाला हं, हंस हूं, शिव हूं, बुद्ध हूं, वासुदेव हूं, कामदेव हूं
हउं सण णाण चरित्त सुद्ध।
हउं देह परमाणु वि गुण समिद्ध ।। हउँ परमाणदुं अखण्ड देसु।
हउं णाण सरोवर परमहंसु ॥ हर रयणत्तय चउविह जिणंदु ।
हर बारह चक्केसर रिंदु ॥ हवं णव पडिहर णव वासुदेव ।
हउँ णव हलधर पुणु कामदेव ॥ बनारसीदास कहीं 'म्हारे प्रगटे देवनिरंजन' कहते हैं तो कभी 'देखो भाई महाविकल संसारी' को सोचते हुए 'मन की दुविधा कब जायेगी' इसकी चिन्ता उन्हें घर कर जाती है
दुविधा कब जैहै या मन की। कब निजनाथ निरंजन सुमिरों, तज सेवा जन-जन की ॥ दुविधा० ॥१॥ कब रुचि सौं पीवें हग चातक, बूंद अखयपद धन की। कब सुभ ध्यान धरौं समता गहि, करून ममता तन की ॥२॥ कब घट अन्तर रहे निरन्तर, दिढता सुगुरु वचन की। कब सुख लहौं भेद परमारथ, मिट धारना धन की ॥३॥ कब घर छाडि होहुं एकाकी, लिए लालसा वन की।
ऐसी दशा होय कब मेरी, हों बलि-बलि वा छन की ॥४॥ बनारसीदास भाव-विभोर होकर द्वैत से अद्वैत की ओर पहुँच जाते हैं। उन्हें आत्मा रूपी पत्नी का परमात्मा रूपी पति से वियोग दुःसह्य हो उठता है। पत्नी "जल बिनु मछली" जैसी तड़पती है, फिर 'समता' सखी से अपने भावी मिलन की बात कहकर आनन्दित हो जाती है। अन्त में उसे
या
३६ परमात्मप्रकाश, १२ ३७ दोहापाहुड़, ४६ ३८ वही, ६४
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