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धर्म और दर्शन
भगवान महावीर का विभज्यवाद भगवतीसूत्र-गत प्रश्नोत्तरों (७-२-२७०, १२-२-४४३, १-८-७२) आदि से स्पष्ट हो जाता है। भगवान बुद्ध के विभज्यवाद से तुलना करने के लिये और भी सूत्र-संख्याओं का संकेत किया जा सकता है, लेकिन यहाँ इतने ही पर्याप्त हैं। उनमें यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि भगवान महावीर ने अपने विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक बनाया। उन्होंने विरोधी धर्मों को अर्थात् अनेक अंतों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया है । इसी कारण से विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ। तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से होने वाली पर्यायों में विरोधी धर्मों को स्वीकार करना, यह भगवान बुद्ध के विभज्यवाद का मूलाधार है, जबकि तिर्यक् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्यों की पर्यायों में विरोधी धर्मों को स्वीकार करना अनेकान्तवाद, स्याद्वाद का मूलाधार है।
भगवान महावीर के द्वारा की गई अनेकान्तवाद की प्ररूपणा में तत्कालीन दार्शनिकों में से भगवान बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतीत होता है कि भगवान बुद्ध ने तत्कालीन वादों से अलिप्त रहने के लिये जो दृष्टि अंगीकार की थी, उसी में अनेकान्तवाद का बीज है । जीव, जगत् और ईश्वर के नित्यत्व, अनित्यत्व आदि के विषय के होने वाले प्रश्नों को भगवान बुद्ध ने अव्याकृत (विवेचन करने योग्य नहीं) बता दिया था, जब कि भगवान महावीर ने उन्हीं प्रश्नों का व्याकरण (विवेचन) अपनी पैनी दृष्टि से किया अर्थात् अनेकान्तवाद के आश्रय से उनका समाधान किया। इन प्रश्नों के समाधान से उनको जो दृष्टि सिद्ध हुई, उसी का सार्वत्रिक विस्तार करके उन्होंने अनेकान्तवाद को सर्ववस्तुव्यापी बना दिया। भगवान बुद्ध दो विरोधी वादों को देखकर उन से बचने के लिए अपना तीसरा मार्ग उनकी अस्वीकृति में ही सीमित करते थे जबकि भगवान महावीर उन दोनों विरोधी वादों का समन्वय करके उनकी स्वीकृति में अपने नये मार्गअनेकान्तवाद, स्याद्वाद की स्थापना करते थे।
भगवान बुद्ध ने 'क्या लोक शाश्वत है,' 'क्या अशाश्वत है, आदि (मज्झिमनिकाय चुलमालुक्य सुत्त ६३) जिन प्रश्नों को अव्याकृत कहा है, उनका (१) लोक की नित्यता-अनित्यता और सान्तता-निरन्तता, (२) जीव-शरीर का भेद-अभेद, (३) तथागत की मरणोत्तर स्थिति-अस्थिति अर्थात् जीव की नित्यता-अनित्यता इन बातों में समावेश हो सकता है। भगवान बुद्ध के समय ये महान प्रश्न थे। इनके बारे में भगवान बुद्ध ने अपना मत देते हुए भी विधायक रूप में कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि 'नित्य' आदि स्वीकार करने में शाश्वत और 'अनित्य' आदि स्वीकार करने में उच्छेदवाद को स्वीकार करना पड़ता था। इसलिये अपने नये वाद का कुछ नाम न देते हुए 'दोनों वाद ठीक नहीं ऐसा कहकर वे रह गये और ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत बता दिया।
भगवान बुद्ध के ऐसा करने का कारण स्पष्ट है। तत्कालीन प्रचलित वादों के दोषों की ओर ही उनकी दृष्टि गई। इसीलिये उनमें से किसी वाद का अनुयायी होना उन्होंने पसंद नहीं किया और अशाश्वतानुच्छेदवाद को ही स्वीकार किया। इस प्रकार प्रकारान्तर से उन्होंने अनेकान्त
वाद का मार्ग प्रशस्त कर दिया। . इसके विपरीत भगवान महावीर ने उन वादों के दोषों और गुणों दोनों की मीमांसा की। प्रत्येक वाद का गुण-दर्शन तो उस वाद के स्थापक ने और दोष-दर्शन भगवान् बुद्ध ने करा दिया। इस प्रकार भगवान महावीर के सामने उन वादों के गुण और दोष दोनों आ गये । दोनों पर मध्यस्थ दृष्टि देने पर अनेकान्तवाद-स्याद्वाद स्वतः सिद्ध हो जाता है। उन्होंने तत्कालीन वादों के गुण-दोषों की परीक्षा करके जिस वाद में जितनी सचाई थी, उसे उतनी मात्रा में स्वीकार करके सभी वादों का समन्वय करने का प्रयास किया। यही भगवान महावीर का अनेकान्तवाद-स्याद्वाद सिद्धान्त है।
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