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________________ आपाप्रवर अभिमा अभिन २३२ धर्म और दर्शन निःस्वभाव है, अनिर्वाच्य है, और अज्ञेय है। कुछ बौद्ध विद्वान केवल निरपेक्ष चैतन्य को ही सत्य मानते हैं। जैन-दर्शन मूल में द्वैतवादी दर्शन हैं। वह जीव की सत्ता को भी स्वीकार करता है, और जीव से भिन्न पुद्गल की सत्ता को भी सत्य स्वीकार करता है। जैन-दर्शन ईश्वरवादी-दर्शन नहीं है । जैनों के चार सम्प्रदाय हैं-श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी। इन चारों सम्प्रदायों में मूल तत्त्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है । तत्त्व सम्बन्धी अथवा दार्शनिक किसी प्रकार का मतभेद इन चारों सम्प्रदायों में नहीं रहा, परन्तु आचार-पक्ष को लेकर इन चारों में कुछ विचार भेद रहा है। वास्तव में अहिंसा और अपरिग्रह की व्याख्या में मतभेद होने के कारण ही ये चारों सम्प्रदाय अस्तित्व में आए हैं, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से इनमें आज तक भी किसी प्रकार का भेद नहीं रहा । चार्वाकों में भी अनेक सम्प्रदाय रहे थे-जैसे चार भूतवादी और पांच भूतवादी । इस प्रकार भारत के दार्शनिक-सम्प्रदाय अपनी-अपनी पद्धति से भारतीय-दर्शन शास्त्र का विकास करते रहे हैं। भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्त भारतीय-दर्शनों के सामान्य सिद्धान्तों मेंमुख्य रूप से चार हैं-आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद और मोक्षवाद । इन चारों विचारों में भारतीय-दर्शन के सभी सामान्य सिद्धान्त समाविष्ट हो जाते हैं। जो आत्मवाद में विश्वास रखता है, उसे कर्मवाद में भी विश्वास रखना ही होगा और जो कर्मवाद को स्वीकार करता है, उसे परलोकवाद भी स्वीकार करना ही होगा और जो परलोकवाद को स्वीकार कर लेता है उसे स्वर्ग और मोक्ष पर भी विश्वास करना ही होता है। इस प्रकार भारतीय-दर्शनों के सर्व-सामान्य सिद्धान्त अथवा सर्वमान्य सिद्धान्त ये चार ही रहे हैं । इन चारों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा विचार नहीं है, जो इन चारों में नहीं आ जाता हो । फिर भी यदि हम प्रमाण-मीमांसा को लें, तो वह भी भारतीय-दर्शन का एक अविभाज्य अंग रही है। प्रत्येक दर्शन की शाखा ने प्रमाण की व्याख्या की है, और उसके भेद एवं उपभेदों की विचारणा की है। फिर आचार-शास्त्र को भी यदि लिया जाए तो प्रत्येक भारतीय-दर्शन की शाखा का अपना एक आचार-शास्त्र भी रहा है । इस आचार-शास्त्र को हम उस दर्शन का साधनापक्ष भी कह सकते हैं। प्रत्येक दर्शन-परम्परा अपनी पद्धति से अपने द्वारा प्रतिपादित तत्त्व-ज्ञान को जब जीवन में उतारने का प्रयत्न करती है तब उसे साधना कहा जाता है । यह साधना-पक्ष भी प्रत्येक भारतीयदर्शन का एक अभिन्न अंग रहा है। दुःख-निवृत्ति और सुख की प्राप्ति यह भी प्रत्येक दर्शन का अपना एक विशिष्ट ध्येय रहा है। यह स्वाभाविक है कि मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन से असन्तोष हो । जीवन में प्रतीत होने वाले प्रतिकूल भाव, दुःख एवं क्लेशों से व्याकुल होकर मनुष्य उनसे छुटकारा प्राप्त करने की बात सोचे, यह स्वाभाविक है। भारत के प्रत्येक दर्शन ने फिर भले ही वह किसी भी परम्परा का क्यों न रहा हो, वर्तमान जीवन को दुखमय एवं क्लेशमय माना है। इसका अर्थ यही होता है कि जीवन में जो कुछ दुःख और क्लेश है, उसे दूर करने का प्रयत्न किया जाए। क्योंकि दुःखनिवृत्ति और सुखप्राप्ति प्रत्येक आत्मा का स्वाभाविक अधिकार है । भारत के इस दृष्टिकोण को लेकर पाश्चात्य-दार्शनिकों ने इसे निराशावादी अथवा पलायनवादी कहा है। परन्तु उन लोगों का कथन न तर्क-संगत है, और न भारतीय-दर्शन की मर्यादा के अनुकूल ही। भारतीय-दर्शन में त्याग और वैराग्य की जो चर्चा की गई है, उसका अर्थ जीवन से पराङ्मुख बनना नहीं है, बल्कि वर्तमान जीवन के असन्तोष के कारण चित्त में जो एक व्याकुलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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