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गुणों का श्रादर, गुणीजनों का सम्मान, जीवन को सदगुणों से
परिपूर्ण करने की पावन प्रेरणा देनेवाला प्रवचन ।
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१८ गुणपूजा करिए
प्रायः देखा जाता है कि संसार में जितने भी प्राणी या पदार्थ हैं, सभी में गुण तथा अवगुण दोनों ही होते हैं। सभी गुणवान हों, ऐसा नहीं होता तथा सभी निर्गुणी हों, यह भी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक पदार्थ में जहाँ कुछ गुण मिलते हैं, वहाँ कुछ-न-कुछ अवगुण भी पाये जाते हैं। संक्षेप में कहा जाये तो न एक ही स्थान पर केवल गुणों का ही भण्डार होता है और न एक ही स्थान पर अवगुणों का ममुह । एक इलोक में इसी बात की पुष्टि सून्दर उदाहरणों के साथ की गई है
यत्रास्ति लक्ष्मीविनयो न तत्र, ह्यभ्यागतो यत्र न तत्र लक्ष्मीः । उभे च तो यत्र न तत्र विद्या,
नेकत्र सर्वो गुणसंनिपातः ॥ जहाँ लक्ष्मी रहती है वहाँ नम्रता नहीं है और जहाँ अतिथि-सत्कार की भावना होती है, लक्ष्मी नहीं रहती है और जहाँ दोनों हैं वहाँ विद्या का अभाव रहता है, अतः यह निश्चित है कि एक स्थान पर सब गुण समूह नहीं रहते है।
पदार्थों की दृष्टि से देखा जाये तब भी यही बात है। गुलाब के फूल के साथ कांटे होते हैं और कमल कीचड़ में रहता है। कस्तुरी जीवनदायिनी होते हुए भी काले रंग की होती है तथा किंपाक फल सुन्दर होते हुए भी प्राणनाश का कारण बनता है। इस प्रकार सृष्टि के समस्त प्राणी और पदार्थ जहाँ कुछ गुण रखते हैं, वहाँ अवगुणों को भी छिपाये रहते हैं। गुणानुरागी की भावना
लेकिन जिन व्यक्तियों का गुणों के प्रति अनुराग होता हैं, वे दूसरों के गुणों को देखकर प्रमुदित होते हैं। दानी पुरुष को देखकर उसकी सराहना करते हैं। तपस्वी को देखकर मन में श्रद्धा के भाव लाते हैं । शीलवान के प्रति अपना मस्तक झुकाते हैं तथा संयमी पुरुष के लिए हृदय में पूज्य भाव रखते हैं । गुणानुरागी व्यक्ति मदा यही भावना रखता है--
गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे । बने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे । होऊ नहीं कृतघ्न कभी मैं द्रोह न मेरे उर आवे ।
गुण-ग्रहण का भाव रहे नित दृष्टि न दोषों पर जावे ॥ कितनी सुन्दर भावना होती है गुणानुरागी व्यक्ति की, कि गुणी जनों को देखकर मेरे मन में प्रेम उमड़ आये, मेरा मन खुशी से भर जाये। भले ही मुझ में गुणों का अभाव हो, त्याग और तपस्या आदि
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