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आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कहा है-भोले बटोही ! अब तन्द्रा को छोड़ो। तुम्हारे सद्गुरु एक चौकीदार के समान तुम्हारे आत्मधन की निगरानी और रक्षा कर रहे हैं तथा तुम्हें प्रमाद रूपी निद्रा से सचेत कर रहे हैं। तुम उनकी शिक्षा को ग्रहण कर जाग उठो । प्रातःकाल हो गया है अतः अपने आत्म-धन को सहेज कर इस ज्ञान रूपी प्रकाश में सावधानी से कदम बढ़ाओ।
हे पथिक ! जबकि पूर्वोपार्जित पुण्यों के फलस्वरूप तुम्हें यह मनुष्य का चोला मिल गया है तो अब प्रमाद मत करो। जप-तप-ज्ञान-ध्यान और भक्ति भाव की ओर बढ़ो। सांसारिक कार्य तो पानी को मथने के समान है, जिससे तुम्हें कुछ भी लाभ हासिल होने वाला नहीं है । इन कार्यों के करने से तुम परलोक के लिए पूंजी एकत्रित नहीं कर सकोगे। सब कुछ यहीं रह जायेगा। धन पैसा तुम्हारे साथ जाने वाला नहीं है। अगर तुम अपनी आगामी यात्रा के लिए कुछ इकट्ठा करना चाहते हो तो उसे पुण्य के रूप में संचित करो । पुण्य कर्मों का संचय केवल धर्माराधन से ही होगा, जड़ द्रव्य इकट्ठा करने से नहीं। वास्तव में धन दौलत आदि से आत्मा का तनिक भी कल्याण होना सम्भव नहीं होता। फिर भी अज्ञानी जीव इसी माया के पीछे मतवाला बना रहता है। कवि सुन्दरदास जी ऐसे अज्ञानी जीवों को बोध देते हैं
माया जोरि जोरि नर राखत जतन करि,
कहत एक दिन मेरे काम आये है। तोहे तो मरत कुछ बार नाही लागे शठ,
देखत ही देखत बबूला सो बिलाए है। धन तो धर्यो ही रहे चलत न कौड़ी गहे,
रोते हाथ आयो जैसे तैसे रीतो जाये है। कर ले सुकृत यह विरिया न आवे फिर,
सुन्दर कहत फेर पाछे पछताये है। कवि के कथन का सारांश स्पष्ट है । इसलिए अगर कुछ साथ में ले जाने वाला धन कमाना है तो अविलम्ब उसे चेत जाना चाहिए और सुकृत रूप में परलोक के लिए पूंजी एकत्रित करनी चाहिए। अन्यथा काल का आक्रमण हो जाने के समय पछताने के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं आयेगा। नेकी में तू जाग बुराई में सो जा
बंधुओ ! आप महापुरुषों के जागो, उठो और सोओ मत ! शब्दों को बार-बार सुनकर घबरायें नहीं। आप सोचते होंगे कि प्रतिक्षण जागते रहेंगे तो फिर विश्राम कब करेंगे? बिना सोये थकावट दूर कैसे होगी? तो इसके समाधान में भी कोई दिक्कत नहीं। अगर आपको सोने का समय चाहिए ही तो एक कवि के शब्दों में बताता हूँ
तू नेको में जाग, बुराई में सो जा।' तुम नेकी में तो जागते रहो और बुराई में सो जाओ। यानी जब तुम्हारे हृदय में शुभ भावनाओं का उदय हो और दया, दान तथा सेवा आदि के नेक काम कर सको, उस समय अवश्य जागते रहो, किन्तु मन की गति विचित्र है, उसमें विचारों के बदलते देर नहीं लगती। अतः जब हृदय में राग, द्वेष, निन्दा, विकथा और दूसरों को कष्ट या हानि पहुंचाने के भाव आयें तथा तुम कुकर्मों को करने के लिए उद्यत हो जाओ, उस समय तुम्हारा सोना बेहतर है। बुरा कार्य करने की अपेक्षा तो कुछ न करना ही उचित है और वही समय तुम्हारे सोने के लिए उत्तम है, ऐसा करने पर ही तुम अपनी जीवन रूपी चादर को स्वच्छ बना सकोगे तथा उसमें लगे हुए अपयश रूपी धब्बों को मिटा सकोगे।
इन्द्रियों के विषय मनुष्य को गुमराह बनाकर कर्म-बंधनों के कारण तो बनते ही हैं, साथ उसके
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