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कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव
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इसलिए प्रत्येक मोक्षाभिलाषी साधक के लिये अनिवार्य है कि वह कपट रूप वक्रता को त्यागकर जीवन में सरलता को स्थान दे । सरलता के अभाव में की जाने वाली समस्त साधनायें केवल कायक्लेश ही होती हैं, वक्र हृदय में धर्म के अंकुर नहीं जमते । वह सरल आत्मा में ही टिकता है क्योंकि सरलता से शुद्धता आती है और शुद्धता के आने पर धर्म का आना अनिवार्य है। लोभ
चंडाल-चौकड़ी के तीन मित्रों का वर्णन हम कर चुके हैं अब चौथे का नम्बर है जिसका नाम है प्रेमसिंह । प्रेमसिंह का ही दूसरा नाम है 'लोभ' । लोभ के विषय में अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे आप चिर परिचित ही हैं । कोई भी नई वस्तु देखें तो आपकी इच्छा होती है कि इसे प्राप्त करें । अपनी वस्तु से आपको संतोष नहीं होता, दूसरों की वस्तुओं को भी हड़पने की इच्छा होती है । लोभ के आक्रमण के कारण आप के पास कितना भी धन-वैभव क्यों न इकट्ठा हो जाये, उससे भी अधिक पाने की लालसा बढ़ती जाती हैं। इसीलिये कहा गया है....
जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवढइ ।
दो मास कयं कज्ज कोडीए वि न निट्ठयं । अर्थात् जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। लाभ ही लोभ को बढ़ता है । दो माशे सोने के लिये आया हुआ ब्राह्मण एक करोड़ में भी संतुष्ट नहीं हुआ।
लाभ और लोभ में विशेष अन्तर नहीं है। सिर्फ एक मात्रा ही बढ़ती है, किन्तु उस मात्रा के कारण ही कितना अनर्थ होता है । लोभ के आते ही अनेक घर बर्बाद हो जाते हैं। आपने सुना ही होगाअनेक ठग भोली बहिनों को लोभ के फंदे में फंसा कर लूट लेते हैं। एक तोला सोने का दस तोला सोना बना देने का लालच देते हैं और उनके मूल को भी ले उड़ते हैं। लोग यह नहीं सोचते कि उस धूर्त व्यक्ति में अगर इतनी शक्ति होती तो वह स्वयं दर-दर क्यों भटकता? पर लोभ का जाल ही ऐसा है कि व्यक्ति उधार लेकर भी उसमें फंस जाते हैं।
जीवात्मा जब लोभ और लालच में फंस जाता है तब कहीं का नहीं रहता। आपने देखा होगाचूहा कुछ खाने के लालच में पिंजरे में घुसता हैं और पकड़ा जाता है। मछली पकड़नेवाले भी काँटे में आटा लगाकर उसे जल में छोड़ देते हैं और मछली आटा खाने के लोभ में आकर यह नहीं देखती कि इसमें कांटा भी है। मराठी में कहा भी है--
आमिषाच्या आशे गल गिलीयासा,
फाटोनिया घसा मरण पावे।' आमिष यानी खाने की आशा में मछली खाद्य-वस्तु पर झपट्टा मारती है पर कांटा उसके गले में फंस जाता है और वह बाहर खींच ली जाती है। बताइये मछली क्यों मरी? खाने के लालच में ही न? इसीलिये लोभ-लालच को त्यागने का विधान आगमों में किया गया है। क्योंकि लोभ की कोई सीमा नहीं है
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ।। इच्छायें आकाश के समान अनन्त हैं । लोभी व्यक्ति यह नहीं देखता कि मेरी आवश्यकतायें कितना संचय चाहती हैं ? संचय और आवश्यकताओं की कोई सीमा उसके सामने नहीं होती। वह तो केवल संग्रह करने और उसकी चौकीदारी करने का ख्याल रखता है। परिणाम यह होता है कि अति आसक्ति के कारण उसके कर्मों का पिटारा भारी होता जाता है । कविता के दूसरे चरण में यही कह गया है
कर्मचन्द्रजी काठा भया रूपचन्दजी सं प्यार, धनराज जी की बात चाहत सदा ही है।
و دهميععي فيعرف هههههههههههه من
مرو مريمرخیام
आचार्यप्रवभिभाचार्यप्रवर भो श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्द अन्य
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