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[भावना में ही बल है | भावना से भवनाश, मुख का वास, ज्ञान का प्रकाश आदि पर नात्विक चिन्तन]
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१३ भावना भवनाशिनी
वाय
मानव-जीवन में भावनाओं का बड़ा भारी महत्त्व है। शुभ भावनायें आत्मिक गुणों का विकास करते हुए उसे उन्नत बनाती हैं और उच्च गति की ओर ले जाती हैं तथा अशुभ भावनाएं आत्मा के सद्गुणों का नाश करती हुईं उसे अधोगति की ओर उन्मुख कर देती हैं। शुभ और सात्विक भावनाओं में ईश्वरत्व का निवास है तथा अशुभ और कुत्सित भावनाओं में शैतान का । इसीलिए हर एक धर्म और शास्त्र कहता है-अशुभ भावना का त्याग करो और शुभ भावना को उसके स्थान पर प्रतिष्ठित करो। आत्मकल्याण का इच्छुक व्यक्ति यही कामना करता है--
असतो मा सद्गमय , तमसो मा ज्योतिर्गमय , मृत्योर्मा अमतंगमय ।
-बृहदारण्यक उपनिपद् अर्थात् असत्य से मुझे सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। सत्य की शक्ति
जिस व्यक्ति का आत्मा और परमात्मा पर विश्वास है, वह परमात्मा से यह प्रार्थना कर रहा है कि मुझमें ऐसी शुभ भावनायें भर दो। उनमें से भी सर्वप्रथम ‘असतो मा सद्गमय'-जिससे मैं असत्य का त्याग करके सत्य पर दृढ़ हो सकू, क्योंकि असत्य भाषण ऐसा महापाप है, जिससे किसी भी प्रकार से छुटकारा नहीं मिलता। कहा भी है
'असत्यवादिनां पंसः प्रतिकारो न विद्यते।' झूठ बोलने वाले पुरुष का प्रतिकार नहीं है। अन्य पापों की तो तप आदि के द्वारा निर्जरा भी हो सकती है लेकिन असत्य का फल तो भोगना ही पड़ता है।
इसके सिवा परलोक की बात छोड़ भी दें तो भी असत्यभाषी को यह लोक ही दुखदायी वन जाता है । यथा
'नासत्यवादिनः सख्यं न पुण्यं न यशो भुवि ।। झूठ बोलनेवाले को इस पृथ्वी पर न तो सज्जन आदमियों की मित्रता ही प्राप्त होती है, न पुण्य ही मिलता है और न यश की ही उपलब्धि होती है। इसलिए असत्य का त्याग करके सत्य को ग्रहण करना आत्माभिलाषी प्राणियों के लिए अनिवार्य है।
सत्य से आत्मा को असीम बल मिलता है। उसकी सहायता से व्यक्ति भयानक-से-भयानक संकटों का मुकाबला कर सकता है तथा दानव के दिल को भी बदल सकता है।
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