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जाकी रही भावना जैसी
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राजस्थान में एक कहानी बहुत प्रसिद्ध है
दोय जणा बीज बावण ने जाय, मारग में मिलिया मुनिराय । एक देखने हुबो खुशी इणरा माथा जिसा सिट्टा हुसी । बीजो मनमें करे विचार, मोड़ो मिलियो मारग मझार ।
मस्तक मुंड पाग सिर नाही, कडबा हसी पण सिट्टा नांहीं । किसी गाँव में दो किसान रहते थे । आषाढ का महीना आया, बादल आकाश में छाये, वर्षा हुई और दोनों ही अपने-अपने हल उठाकर खेतों में गये। रास्ते में गांव के बाहर निकलते ही कोई मुनिराज । मिल गये । मुनिराज चातुर्मास करने के लिए गांव में आ रहे थे। मुनि का मस्तक सफाचट था, यह देख कर दोनों किसान विचार करने लगे। पहले ने सोचा-शकुन तो बहुत अच्छे हुए हैं, मैं बाजरी बोने जा रहा हूँ, और नंगे सिर वाला साधु सामने मिला है तो जरूर इस बार साधु के सिर जितने बड़े-बड़े सिट्टे होंगे।
इधर दूसरे किसान के मन में भी विचार आया-नंगे सिर वाला मोड़ा (साधु) मिला है, शकुन अच्छे नहीं हुए। साधु के सिर पर पगड़ी नहीं है, इसलिए कडबी तो होगी, लेकिन सिटे नहीं होंगे। संयोग की बात की दोनों ने जैसा विचार किया, वैसा ही हुआ। पहले किसान के खेत में खूब सिट्ट हुए, बाजरा हुआ। दूसरे के खेत में टिड्डियाँ आ गई, सारे सिट्ट खा गईं बस कडब-कड़बा रह गया।
तो जैसी भावना थी वैसा ही फल मिल गया। जिसकी भावना अच्छी थी, उसे अच्छा फल मिला, जिसकी भावना बुरी हुई उसे बुरा फल मिला।
इस प्रकार हमारे जीवन में, हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थान में भावना एक प्रमुख शक्ति है। भावना पर ही हमारा उत्थान और पतन है, भावना पर ही विकास और ह्रास है। शुद्ध, पवित्र एवं निर्मल भावना जीवन में विकास और उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है। इसलिए भावना को सदा उज्ज्वल और पवित्र रखना चाहिए।
आनन्द-वचनामृत 0 एक जिज्ञासु ने ज्ञानी से पूछा--शरीर में सबसे उत्तम अंग कौन-सा है ?
ज्ञानी ने कहा-अन्तःकरण और जीभ । कैसे ? जिज्ञासु ने पूछा । ज्ञानी ने उत्तर दिया-करुणा से पूरित हृदय, और सत्य-देवता के आवास से युक्त जिह्वा ये देह में सर्वोत्तम अंग हैं । और देह में सब से अधम अंग-? जिज्ञासु ने पूछा। ज्ञानी ने पुनः कहा-वही ! क रता पूर्ण अन्तःकरण और असत्य के दोष से दूषित वाणी, ये दो ही इस शरीर में सबसे अधम अंग हैं।
- मनुष्य का अर्थ है मननशील प्राणी । अगर वह अपने सम्बन्ध में मनन नहीं करता
है तो फिर मनुष्य कैसा? मैं क्या हूँ ? मुझे क्या करना है ? क्या कर रहा हूँ ? कहाँ जाना है ? कहाँ से आया हूँ ? मेरे भीतर कितने दोष हैं ? कितने गुण हैं ? पशुता का कितना अंश है ? मनुष्यत्व और देवत्व का कितना अंश है ? इस प्रकार का मनन करना मनुष्य का धर्म है, मनुष्य शब्द की सार्थकता है ।
आचावट भिआचार्यप्रवरआभार श्रीआनन्दमन्थश्राआनन्दजन्य 2
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