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[भाव बिना सब सूना, भावना का, महत्व, शद्ध भाव की विशिष्टता,
जैसा भाव पैसा अनुभाव आदि पर उद्बोधक चिम्तन ।]
१० जाकी रही भावना जैसी
आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है
भावरहिओ न सिज्झइ१ भाव (भावना) से रहित आत्मा कितना भी प्रयत्न करे वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
शास्त्रों में मोक्ष के जो चार मार्ग बताये हैं-दाणं च सीलं च तवो भावो एवं चउविही धम्मो२ "दान, शील, तप और भाव यह चार प्रकार का धर्म है अर्थात् दान, शील तप और भाव, उनमें अन्तिम मार्ग भाव है। एक प्रकार से यों कह सकते हैं कि दान, शील और तप भी तभी मुक्ति के मार्ग होते हैं, वे भी सिद्धिदायक, फल प्रदाता तभी होंगे जब उनमें भाव होगा । भावना से शून्य दान, शील, तप आदि केवल शरीरकष्ट और अल्प फल देने वाले ही होंगे । इसीलिए तीनों को आखिर में भाव के साथ जोड़ा गया है। दान के साथ में दान देने की शुद्ध भावना होगी, शील-ब्रह्मचर्य पालने में भी सच्ची भावना होगी और तप करने में भी यदि भाव शुद्ध होंगे तभी वे मुक्ति के कारणभूत बनेंगे । इसलिए यह बात शत-प्रतिशत सही है कि भावरहिओ न सिज्झई-भाव शुन्य आचरण कभी भी सिद्धिदायक नहीं होता।
आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि
वाएण विणा पोओ न चएइ महण्णवं तरिउ जैसे हवा के बिना अच्छे से अच्छा जहाज भी समुद्र में चल नहीं सकता, वैसे ही अच्छे से अच्छा चतुर साधक भी भाव के बिना संसार-सागर को पार नहीं कर सकता । नाव को चलाने में जैसे पवन कारण है, वैसे ही धर्मरूप, साधना रूप नाव को संसार समुद्र से तैरने में भाव ही मुख्य कारण है। भाव के बिना सर्वत्र अभाव-ही-अभाव है।
भगवान कहाँ ? भाव में ! लोग मंदिर में जाकर मूर्ति को पूजते हैं-कोई पत्थर की मूर्ति को, कोई सप्तधातु की मूर्ति को और कोई सोना तथा हीरों-पन्नों की मूर्ति के सामने सिर झुकाता है, उसे भगवान मानकर पूजता है, तो क्या भगवान उस मुति में है ? है तो कौनसी मति में है ? सोने-चांदी की मूर्ति में भगवान है या पत्थर की मूर्ति में या आपके हीरा-पन्नों की मूर्ति में भगवान है ? आप कहेंगे भगवान मूर्ति में थोड़े ही है, भगवान तो भाव में है, मन में है। राजस्थानी में कहावत है-"मान तो देव नहीं तर भीतरा लेव।" इसी भाव को आचार्य चाणक्य ने कहा है
१ भावपाहड ४ २ सारसय ठाणा वृत्ति द्वार १४१ पृ० ७० (अभिधान राजेन्द्र कोष भाग ४ पृ० २८६) ३ आवश्यक नियुक्ति ६५
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