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________________ सुख की खोज १७६ यासार. अगला सुख आज्ञाकारी पुत्र का होना माना है। लेकिन इस युग में तो पुत्र का आज्ञाकारी होना बड़ी ही असम्भव-सी बात लगती है। आये दिन सुनते, देखते और पढ़ते हैं कि अमुक स्कूल के विद्यार्थियों ने अपने मास्टरों को गालियाँ दीं, अमुक कालेज के छात्रों ने प्रोफेसर को पीट दिया । क्या ऐसे अनुशासनहीन लड़के अपने माता-पिता का भी आदर-सम्मान कर सकते हैं ? जो छात्र अपने गुरु का मान नहीं करते वे आगे जाकर अपने माता-पिता का मान क्या रख सकते हैं ? इसके अलावा मान भी लिया जाये कि कोई पुत्र सुपुत्र है, तो भी उसकी ओर से क्या माता-पिता को सुख मिलता है ? नहीं, जन्मने के साथ ही उसकी सार-सम्भाल करना शुरू हो जाता है, माता-पिता स्वयं अनेकानेक कष्ट सहकर उसका लालन-पालन करते हैं। इसके पश्चात् वृछ बड़ा होने पर उसकी पढ़ाई-लिखाई के खर्च आदि की चिन्ता में इतना परिश्रम करना पड़ता है कि माता-पिता को स्वयं की ओर ध्यान देने का भी अवकाश नहीं मिलता। इसके पश्चात् जरा बड़ा होने पर शादी-विवाह की चिन्ता हो जाती है, उससे निवृत्त होने पर पौत्र-पौत्री हो गये तो उनकी मोह-ममता में पड़े रहकर अपनी आत्मा के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता। इस प्रकार पुत्र के जन्म से लेकर ही माता पिता को कभी शांति नसीब नहीं हो पाती और ऐसी स्थिति में पुत्र से सुख मिलता है, यह कहना भूल के अलावा और क्या कहा जा सकता है ? इलोक में छठा सुख बताया गया है--अर्थ के उपार्जन में सहायक होने वाली विद्या का प्राप्त करना। पर क्या उस विद्या या शिक्षा से इन्सान सच्चे सुख की प्राप्ति कर सकता है ? नहीं। पहले तो विद्यार्थी वर्षों तक अनेक विषयों की पोथियाँ रटते-रटते ही परेशान हो जाता है और पढ़-लिख लेने के बाद नौकरी मिल गई तो सूबह से शाम तक कार्यरत रहकर अपने स्वास्थ्य को खो बैठता है। प्राप्त धन उसे निन्यानव के चक्कर में डाल देता है । चाहे वह सौ रुपये कमाता हो या हजार रुपये, अपनी भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं के पुरे न होने का रोना रोते रहते हैं। जैसे-जैसे लाभ बढ़ता जाता है, वैसे-ही-वैसे लोभ की मात्रा भी बढ़ती जाती है। इस प्रकार धन का उपार्जन कराने वाली विद्या को हासिल करके भी व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाता। कहने का अभिप्राय यही है कि संसारी जीव परपदार्थों के निमित्त से सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु वह सुख, सुख नहीं, सुखाभास बनकर रह जाता है। पर-पदार्थजन्य सुख केवल मिट्टी के मोदक हैं जो बाहर से तो मन को मुग्ध कर सकते हैं, किन्तु सार उनमें कुछ भी नहीं है। ऐसा जान लेने के पश्चात् स्वभावतः मन में प्रश्न उठता है कि फिर सच्चा सुख कहां है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है ? सच्चे सुख की प्राप्ति के उपाय इसका उत्तर यही है कि सुख आत्मा का गुण है और गुण सदैव गृणी में ही विद्यमान रहता है। अतः सच्चा सुख भी आत्मा के अन्दर ही रहता है। बाह्य पदार्थों में खोजने से वह प्राप्त नहीं हो सकता। वह इन्द्रियों द्वारा भोगा नहीं जा सकता और वाणी से उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उसे केवल गंगे के गुड़ की उपमा दी जा सकती है यानी वह केवल अनुभव से जाना जा सकता है। जैनागमों में उसकी प्राप्ति का क्रम इस प्रकार बताया है--- जया निविदए भोए जे दिव्वे जे य माणसे । तया चयइ संजोगं सभितर बाहिरं ।। NA आपाय प्रवर अभिआपार्यप्रवर आभन श्रीआनन्दान्थ श्राआनन्द 697 wireonewwindiwoartenmA. Ram Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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