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६ मीठी वानी बोलिये
[वारणी की शक्ति, मधुर वचन का प्रभाव, कटुबचन का कुफल, वाणी नर की निशानी आदि का स्पष्ट निदर्शन कराने वाला प्रेरक प्रवचन |]
मानवजीवन की महिमा
पंचेन्द्रिय तक के प्राणी हमारे बोलने की शक्ति बहुत कम
इस जगत में अनन्तानन्त प्राणी विद्यमान हैं । एकेन्द्रिय से लेकर दृष्टिपथ में आते हैं, किन्तु जिह्वा होने पर भी स्पष्ट और सार्थक भाषा प्राणियों में पाई जाती है । एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय के प्राणियों में तो यह क्षमता होती ही नहीं पर समस्त पंचेन्द्रिय जीवों में भी यह नहीं पाई जाती। हाथी, घोड़े, गेंडे आदि विशालकाय जीव पंचेन्द्रिय होकर भी एक दूसरे से अपने विचारों का आदान-प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो दूसरों की समझ में आने वाली भाषा बोल सकता है तथा उन्हें अपने विचारों से भलीभांति अवगत कराने में कुशलता रखता है ।
यह सब देखने पर हमें स्पष्ट रूप से महसूस होता है कि मनुष्य ने अपने पिछले जन्मों में अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ विशेष सुकृत किये होंगे तथा विशेष पुण्यों का उपार्जन किया होगा, तभी उसे जगत के अनन्त प्राणियों की अपेक्षा विशेष बौद्धिक शक्ति, मानसिक क्षमता और इन सब से 'बढ़कर सार्थक भाषा बोलने की क्षमता प्राप्त हुई है । अन्यथा संसार के अन्य सभी जीवों को मनुष्य के समान ही शक्तियाँ क्यों प्राप्त नहीं हुई ?
पुण्योदय का सुफल – वाणी
अनन्त पुण्यों का संचय करने पर हमें जो व्यक्त वाणी बोलने की क्षमता मिली है, यह निश्चय ही अत्यन्त मूल्यवान है । ज्ञानियों की दृष्टि से देखा जाय तो हमें इसकी प्राप्ति के लिये बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। इसलिये इस महा मूल्यवान शक्ति को हमें व्यर्थ ही नहीं गंवाना चाहिये । संसार का प्रत्येक बुद्धिमान और विवेकशील व्यक्ति अपनी किसी भी बहुमूल्य वस्तु को व्यर्थ में नहीं खोता, वह उससे पूरा-पूरा लाभ उठाता है, बल्कि जितना मूल्य देकर उसे प्राप्त करता है, उससे अधिक ही वसूल करना चाहता है । इस दृष्टि से वही व्यक्ति बुद्धिमान माना जायेगा जो वाणी की प्राप्ति में खर्च किये हुए पुण्यों के पूँजों की अपेक्षा भी इसके द्वारा और अधिक नवीन पुण्यों का उपार्जन कर लेगा ।
जैनागमों में पुण्य के नौ प्रकार बताये हैं, जिनमें से एक वचनपुण्य भी है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि अगर हम अपनी वाणी का उपयोग भली-भांति विचारकर करें, इसके द्वारा किसी को हानि और कष्ट न पहुँचायें, किसी के हृदय को अपने वचनों से व्यथित न करें अपितु जहाँ तक संभव हो सके, इसके द्वारा औरों को सुख और शांति पहुँचाने का प्रयत्न करें तो हम इसके द्वारा पुनः महान् पुण्यों का संचय कर सकते हैं ।
आचार्य चाणक्य ने वाणी का महत्व बतलाते हुए कहा है-
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