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आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवर भिक श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्दान्य५१
१४६ आचार्यप्रवर श्री आनन्दऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नहीं हिचकिचाते। ऐसा उत्कृष्ट संयम पालन ही शिवगति की प्राप्ति का साधन बन सकता है। किन्तु जो जीव अभवि होते हैं अर्थात् भविष्य में जिनके छुटकारे की सम्भावना नहीं होती वे प्रतिदिन जिनवाणी को सुनकर भी जागृत नहीं होते, सन्तों के उपदेश की एक भी सीख ग्रहण नहीं करते । पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने ऐसे जीवों के लिए सत्य ही कहा है
बरसत मेघधार भेदे नहीं मगशूल, अभवि को चित्त नहीं भेदे जिनवाणी ये । जलत जवासो जैसे अति धन बरसत, खार की जमी प नहीं बीज वृद्धि मानिए। तुष को पछारे नहीं मिलत तंदुल कन, निकसे न माखन मथावे कोई पानी ये । सन्निपात रोगी ताको दूध खांड जहर होय,
अमीरिख कहे ऐसे अभवि पिछानिये ॥ कहा है--जिस प्रकार निरन्तर मेघवृष्टि होने पर भी मगशूल नामक काला पत्थर कभी नहीं भीगता, उसी प्रकार अभवि जीव का अन्तःकरण प्रतिदिन जिनवाणी की अखण्ड धारा को सुनकर भी बोध को प्राप्त नहीं होता, उलटे जिस प्रकार जवासिया का छोटा-सा पेड़ अन्य फले-फूले वृक्षों को देखकर ईर्ष्या से स्वयं ही जल जाता है, वह भी औरों को प्रगति को देखकर मन-ही-मन जलता है और अपनी
आत्मा को कलुषित बनाता है। अभव्य के विषय में अधिक क्या कहा जाय? जैसे खारी जमीन में डाला हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, तृष अर्थात् छिलकों को पछाड़ने से चावल का एक भी दाना नहीं निकलता, पानी को लगातार मथते रहने पर भी मक्खन प्राप्त नहीं होता और सन्निपात के रोगी को दूध और शक्कर लाभप्रद होने के बजाय हानिकारक साबित होता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व और अज्ञान रूपी रोग से ग्रसित होने के कारण अभव्य जीव को न शास्त्रों का स्वाध्याय करने से, न जिनवाणी का श्रवण करने से और न ही निरन्तर उपदेशों के द्वारा बोध दिलाने का प्रयत्न करने से ही कोई लाभ होता है। नीम न मीठो होय
ऐसा जीव कोटि प्रयत्न करने पर भी पूर्ववत् बना रहता है, रंचमात्र भी अपने आपको नहीं बदल पाता है। शास्त्र बताते हैं और आपको भी ज्ञात होगा कि राजा श्रेणिक ने अपने नरक का बँध तोड़ने के लिए क्या-क्या किया था ?
जब भगवान ने बताया कि 'तुम मरकर नरक में जाओगे' तो थेणिक को बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने भगवान से उस दुखदायी नरक से बचने का उपाय पूछा ।
भगवान महावीर ने राजा को चार उपाय नरक से छुटकारा पाने के बताये। जिनमें एक था श्रेणिक की दादी को भगवान के दर्शन कराना और दूसरा था उनकी कपिला दासी के हाथ से दान दिलाना।
उपाय सरल थे। राजा श्रेणिक ने सोचा-'यह कौनसी बड़ी बातें हैं ? मैं दादी जी को एक बार तो क्या, कई बार भगवान के दर्शन करा दूंगा और दासी तो मेरी सेविका ही है, उसके हाथ से चाहे जितना दान दिला दूंगा।
अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा श्रेणिक पहले अपनी दादी के पास आ पहुँचे और बोले-'दादी जी ! आप मेरा सुख चाहती हैं या दुःख ?'
'बेटा, यह कैसी बात है ? मैं तो तेरा सुख ही चाहती हूँ।'
'तो फिर एक बार भगवान के दर्शन करने चलो।' राजा श्रेणिक ने मौका पाते ही कह दिया, पर दादी जी तो जैसे सांप की पूंछ पर पैर पड़ गया हो, इस प्रकार चौंक कर बोलीं
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