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________________ महासती त्रिशलाकुमारी, जैनसिद्धान्ताचार्य [महासती रत्नकुमारी जी का सुशिष्य] वाक्संयमी, किंतु कर्मयोगी विश्व के इस विराट् पुप्पोद्यान में प्रतिदिन लाखों, करोड़ों फूल खिलते हैं और मुरझा जाते हैं। उनसे प्रकृति की सुन्दरता और मोकहता में कोई परिवर्तन नहीं होता । बहुतों के सम्बन्ध में तो संसार यह भी नहीं जानता कि वे कब खिले और कब मुरझा गये । वे केवल कहने मात्र को फूल थे। उनके अन्दर जन-मन-नयन के आकर्षण के लिए अपनी कोई गंध नहीं थी, परन्तु गुलाब का फूल जब डाल पर खिलता है तो वह अपने दिव्य-सौरभदान से प्रकृति की गोद को सुगंध और सुवास से भर देता है। इसीप्रकार इस धराधाम पर न मालूम कितने मानव जन्म लेते हैं और मरते हैं। संसार उनका न पैदा होना जानता है, न मरना । और कौन उन सबको स्मरण करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करना चाहता है ? लेकिन कुछ महामानव इस धरतीतल पर गुलाब का फूल बनकर अवतीर्ण होते हैं, जिनके आँख खोलते ही घर परिवार का बगीचा खिल उठता है। समाज का सूना आँगन मुस्कराहट से भर जाता है और राष्ट्र प्रसन्नता तथा आशाओं की हिलोरें लेने लगता है । वे स्वयं जागरण की एक गहरी अंगडाई लेकर सोई हुई मानवता का भाग्य जगाते हैं । उनको पाकर मानव-जगत एक नयी चेतना, एक नयी स्फूति का अनुभव करता है । ऐसे महापुरुष ही संसार में अपना नाम अमर कर पाते हैं। युग-युग तक मनुष्य उन्हें स्मरण करता है और उनके जीवन से शिक्षा लेकर अपने जीवन को भी सार्थक बनाने का तथा परमात्मा बनाने का प्रयत्न किया है। इस दृश्यमान पृथ्वी पर असीम वैभव प्राप्त कर लेना, अद्भुत एवं आकर्षक वस्तुओं का संग्रह कर लेना तथा प्रकांड पांडित्य के बल पर जनता को मंत्रमुग्ध करके आदर, सन्मान एवं यश की प्राप्ति कर लेना ही इस जीवन का लक्ष्य नहीं है तथा धन, जन, अधिकार अथवा प्रतिष्ठा से प्राप्त होने वाला आनन्द स्थायी नही है । ये सभी सुख केवल सुखाभास हैं और अनित्य हैं। सच्चा सुख तो इन सभी से मुक्त हो जाने में है और यह तभी संभव होगा जबकि बाह्य जगत से मुंह मोडकर अपनी आत्मा में झाँकेगा, उसके दुःख को समझेगा और दुःख के कारणों को निभूल करने का प्रयत्न करेगा। कुछ दिनों तक सांस लेने का नाम ही जीवन और इस धधक का रुक जाना ही मृत्यु नहीं है । एक कवि ने सत्य ही कहा है-- जिन्दगी केवल न जीने का बहाना, जिन्दगी केवल न सांसों का खजाना । , जिन्दगी सिन्दूर है प्रब दिशा का, जिन्दगी का काम है सूरज उगाना ॥ ___ संसार उन्हीं महान् आत्माओं को सादर शीष झुकाता है, जो चन्द्रमा और सूर्य के समान अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से आध्यात्मिक आलोक जगत् को प्रदान करते हैं । हम देखते हैं कि आकाशरूपी विशाल प्रांगण में प्रतिदिन अनेक उगण उदित होते हैं और सूर्योदय होने पर लुप्त हो जाते हैं परन्तु उनका विय CHAASARJABAMRAVAJAMMANJInte HORORMATRADADOOJABA आचार्यप्रवभिआचार्यप्रवभिनों आनन्५ प्रामानन्दन UPL winnrn Arvin vernment Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012013
Book TitleAnandrushi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Devendramuni
PublisherMaharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
Publication Year1975
Total Pages824
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size21 MB
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