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आचार्य प्रव38
आचार्य प्रव श्री आनन्दन ग्रन्थ श्री आनन्द अन्य ११
६० आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लिए एक मधुर मिठास काम कर रही है तो वह साधक सम्पूर्ण समाज के कल्याण की भावना से सभी प्रकार की समस्याओं की उलझनों को सुलझा देता है और साथ में सभी प्रकार की समाज विरोधी भावनाओं की कटुता को अपनी सद्भावना और सद्बुद्धि की शक्ति के माध्यम से समाप्त भी कर देता है । परन्तु जो साधक सही रूप में अपने आप में जागृत नहीं है और साथ में जिसके जीवन में से समाज की भलाई की भावनाएँ निकल चुकी होती हैं वह सभी प्रकार की समस्याओं की उलझनों को सुलझाने की अपेक्षा अपनी ओर से और उलझा देता है । वह अपने जीवन में कटुता को कम करने की भावना ही नहीं रखता । वह तो अपनी ओर से समाज संगठन विरोधी भावनाओं की और कटुता मिलाकर उसे और अधिक बढ़ा देता है । वह अपने जीवन के लिए भी और साथ में समाज के शान्त जीवन के लिए भी वर्तमान में भविष्य के लिए अप्रिय घटनाओं के बीज बो रहा है ।
आचार्यश्री जी अपने आपमें बड़े ही मिलनसार स्वभाव के हैं। आचार्यश्री जी की ओर से विरोधियों का भी अनादर नहीं, परन्तु उन्हें आदर और सम्मान ही मिलता है । जिसने आचार्यश्री जी को ऊपर की आँखों से ही नहीं परन्तु विवेक की आँखों से देखा है, वही जानता है कि आचार्यश्री जी कितने तेजस्वी और प्रभावशाली हैं। आचार्यश्री आनन्दऋषि जी महाराज के जीवन में ऐसे-ऐसे अनेकों गुण हैं जो दूसरे के जीवन में जादू जैसा असर करने वाले हैं ।
एक विशाल भवन, जो मजबूत भी है और देखने में भी आकर्षक है। अगर किसी कारण से उसके एक कोने में दरार आ गई है और उस कोने में कमजोरी आ गई है तो आप उस कमजोरी को मरम्मत द्वारा दूर कर उस भवन की रक्षा कर सकते हैं। लेकिन आप उस कोने की कमजोरी को ठीक करने के लिए यदि सम्पूर्ण भवन को गिराना चाहते हैं तो यह बात किसी समझदार व्यक्ति के गले नहीं उतर सकती । यह कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है । श्रमणसंघ के रूप में हमारे सामने एक बहुत सुन्दर भवन दिखाई दे रहा है । इस भवन के चाहे कोई अन्दर हो और चाहे कोई इसके बाहर हो, प्रत्येक साधक को इसकी सुन्दरता की रक्षा के लिए अपनी शक्ति का सही उपयोग करना चाहिए। हम अपनी सम्पूर्ण शक्तियों को एकत्रित कर अपने जीवन में इस ढंग से आगे बढ़ें, जिससे कि हमारी साधनाएं भी चमकें, आचार्यश्री जी के हाथ भी मजबूत हों और इस श्रमण संघ के संगठन को भी सच्चा बल मिले। अगर ऐसा कर सके तो सच्चे अर्थों में हम आचार्यश्री जी के पवित्र चरणकमलों में अपनी निःस्वार्थ सद्भावनाओं के पुष्प चढ़ा सकेंगे ।
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आनन्द-वचनामृत
श्रद्धाशील, मंदकषायी और नम्रवृत्ति वाला व्यक्ति श्रमण शब्द की शोभा बढ़ाता है ।
D तृष्णा की नदी को तैरने के लिए वैराग्य की नौका का सहारा लेना होगा ।
[] सुखों के महल में चढ़ने के लिए समता की सीढ़ियों पर चढ़ना जरूरी है । [ ज्ञानी वह नहीं जो शास्त्रों की गाथाएँ बोलता है, किन्तु ज्ञानी वह है जो मन की आँखें खोलता है ।
पुष्प का सार है पराग, संत का सार है विराग ।
तन को सजाना वेश्या का कर्म है, मन को सजाना मुनि का धर्म है ।
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