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- महासती सुमतिकुंवर जी [विदुषी एवं निर्भीक साध्वी, शिक्षा एवं सेवा कार्यों में संलग्न
महाराष्ट्र का कोहेनूर : आचार्य श्री आनन्दऋषि
महिमामयी पुण्यभूमि भारतवर्ष नररत्नों की जन्मभूमि है। आध्यात्मिकता और त्याग के बीज इस भूमि के कण-कण में समाये हैं। अतएव यहाँ का सांस्कृतिक लोकजीवन आध्यात्मिक आदर्शो से सदैव अनुप्राणित रहा है। प्रत्येक महामानव ने 'सर्वे सुखिनः संतु' के संगायन के द्वारा उत्तरोत्तर जनता को कल्याण मार्ग का दर्शन कराया है। कशमीर से कन्याकुमारी और तक्षशिला से त्रिपुरा तक फैले इस देश की भूमि में अनेक सम्राटों, परिव्राटों ने देशवासियों के नैतिक निर्माण द्वारा विश्व को जीवन जीने की कला सिखाई है।
इसी देश के दक्षिण भूभाग की अपनी अनूठी ही विशेषता है। अनेक रणवीरों, राष्ट्रभक्तों और अध्यात्मसाधक संत-महात्माओं की गौरव गाथायें इतिहास में अंकित हैं, जिनका पुण्यस्मरण और श्रवण कर प्रत्येक देशवासी श्रद्धावनत हो गौरवानुभूति करने लगता है। हिन्दुपत छत्रपति शिवाजी, संत ज्ञानदेव, नामदेव, स्वामी रामदास, संत तुकाराम, बालगंगाधर तिलक, प्रभृति की पुनीत कर्मभूमि यही दक्षिण की शस्य-श्यामला भूमि है।
जैनसंस्कृति के आचार-विचारों के व्यापक प्रचार, शिल्प, स्थापत्य के अपूर्व स्मारकों के निर्माण और जैन वाङ्मय के प्रणेता महान आचार्यों की साधना से समृद्ध होने का श्रेय भी इसी भूमि को प्राप्त है। आचार्य स्थूलिभद्र जैसे महान जैनाचार्यों ने सहस्रों जैन ग्रन्थों का ताड़पत्र पर अंकन कर सरस्वती के कोप की श्रीवृद्धि की है और उक्त परम्परा की धारा अद्यावधि जैनाचार्यों द्वारा प्रवहमान है।
इसी महिमामयी भूमि को हमारे श्रद्धेय पूज्य श्री आचार्य श्री आनन्दऋषि जी महाराज को जन्म देने, संयमसाधना में नितनूतन कीर्तिमानों को संस्थापित करने की ओर अग्रसर कराते रहने का गौरव प्राप्त हुआ है । इस भूमि से अजित संस्कारों के फलस्वरूप आपश्री संतशिरोमणि, संघनायक जैसे पदों से सुशोभित हुए हैं । आपश्री की अध्यात्मप्रवणता अध्यात्मसाधकों के लिये दीप-स्तम्भवत् पथप्रदर्शक है।
महापुरुषों के जन्मजात संस्कारों को पल्लवित करने का श्रेय माता के रूप में नारी जाति को है। सन्तान को वह अपने वात्सल्य की अमीधारा का पान कराकर एवं स्वकल्याणमयी भावनाओं का पाथेय प्रदान कर अपने आपको कृतार्थ मानती है। लेकिन इस नारी जाति को अपमानित, प्रताड़ित करने के लिए बड़े-बड़े विद्वानों ने सदैव प्रयास किया है। मूढ़, गवार, शुद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी जैसे अवज्ञासूचक वाक्यों का प्रयोग तक कर दिया। यही नहीं, भगवान बुद्ध ने तो अपने संघ में नारी जाति को उचित स्थान देने पर संघविच्छेद होने तक की कल्पना कर ली थी। लेकिन इतने मात्र से नारी के गौरव को धूमिल नहीं किया जा सकता है। उसके दान की अबहेलना नहीं की जा सकती है। यथेच्छा
आचार्यप्रवर अभिगन्दामा श्रीआनन्दान्थश्राआनन्दान्थ५१
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