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साधना का एक अंग बन गई है। आचार्य प्रवर के अभिनन्दन ग्रन्थ में प्राकृत के सम्बन्ध में कुछ न आये, यह कैसे होता ? हमारी कल्पना तो इसी खंड को सबसे अधिक विशाल और नवीनतम सामग्री से समृद्ध करने की थी। लेकिन प्राकृत के विद्वानों ने अपेक्षाकृत प्राकृत के अन्य विषयों पर ही अपने प्रौढ़ विद्वत्तापूर्ण निबन्ध दिये हैं, अतः प्राकृत भाषा खंड कुछ छोटा अवश्य है, पर जितनी सामग्री है, विशिष्ट है, अतः थोड़ा भी सार पूर्ण है।
पांचवां खंड इतिहास और संस्कृति से सम्बन्ध रखता है। पाठकों को जैन इतिहास एवं जैन संस्कृति से सम्बन्धित मौलिक सामग्री इसमें मिलेगी। आचार्य प्रवर का पारिवारिक सम्बन्ध जिस ऋषि संप्रदाय के साथ सम्बद्ध है, उसके पांच सौ वर्ष का संक्षिप्त इतिहास भी पाठक इसमें पढ़ सकेंगे ।
लेखों का संग्रह है । उनमें हुए भी भाषा की एकरूपता है, इसीलिए संनिविष्ट कर दिया गया है।
छठा खंड विविध विषयों के अंग्रेजी विषयों की विविधता होते उन लेखों को एक खंड में
इस प्रकार यह ग्रन्थ छह खंडों में विभक्त हैं। आचार्य एक प्रकार से धर्म चक्रवर्ती होते हैं। चक्रवर्ती घट्लंडाधिपति होता है—अनायास और अनायोजित रूप से ही ग्रन्थ के छह खंड – आचार्य प्रवर के धर्म चक्रवर्तित्व की साक्षी दे रहे हैं ।
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ग्रन्थ के सम्पादन में परामर्शदातामंडल का एवं सम्पादक मंडल का हार्दिक सहयोग मिलता रहा है; जिसके लिए मैं कृतज्ञ तो हूँ, परन्तु शब्दों द्वारा आभार व्यक्त करके उस सहयोग की गंभीरता को कम नही करना चाहता । डा० नरेन्द्र भानावत (राज० वि० वि) डा० भागचन्द्र जैन, ( नागपुर वि० वि०), डा० वशिष्टनारायण सिन्हा (काशी विद्यापीठ) एवं प्रो० रणदिवे (छत्र० कालेज, सतारा) का आत्मीय भाव सदा रहा है, तदनुरूप उनका विशिष्ट सहयोग भी मिला है। मेरे स्नेही प्रो० श्रीचन्द जैन (उज्जैन) का भी इसमें बड़ा सौजन्यपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है। मैं उन आत्मीय सहयोगियों के प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ । लेखक विद्वानों, मनीषी मुनिवरों, एवं शुभकामना संदेश भेजनेवाले समस्त आदरणीयजनों के प्रति विनत है कि उनके सहयोग से ही यह 'अभिनन्दन ग्रन्थ' अपनी सुन्दर एवं विशिष्ट सामग्री के साथ आज पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है, और हम हजारों श्रद्धालुओं की श्रद्धा का पिंडीभूत रूप बनकर आचार्य प्रवर के अभिनन्दन समारोह की शोभा बन रहा है।
विनीत
- श्रीचन्द सुराना 'सरस'
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