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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
कितने ही अन्य विज्ञों का ऐसा मन्तव्य है कि वेदान्त में पाँच मनोवृत्तियों का वर्णन मिलता है वह पतञ्जलि के योग-सूत्र से लिया गया है । पतञ्जलि योगसूत्र में पांच चित्तवृत्तियों का उल्लेख है, परन्तु यहाँ पर 'मनस्' और 'चित्त' शब्द का अर्थ विचार करना आवश्यक है। सांख्यदर्शन में मन, बुद्धि और अहंकार नामक अन्तःकरण त्रितय हैं। पतञ्जलि योगशास्त्र में मन, बुद्धि, अहंकार और 'चित्त' नामक अन्तःकरण चतुष्टय है । 'चित्त' शब्द पतञ्जलि के योगशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है और सांख्य में इसकी चर्चा नहीं है।
पतंजलि के योगशास्त्र में भारतीय मनोविज्ञान का महत्त्वपूर्ण विश्लेषण किया गया है। व्यक्तिधर्म और समाजधर्म का उत्कृष्ट समन्वय प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न में दिखाया गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच यमों का पालन “जब साधक करेगा तब वह समाज के अभ्युदय के मार्ग पर निश्चित रूप से ही आगे बढ़ेगा। समाज-हित को सामने रखकर व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिए शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान महत्त्वपूर्ण नियम हैं। इन सामाजिक एवं व्यक्तिगत धर्मों के अतिरिक्त साधक यथाशक्ति एवं यथाआवश्यकतानुसार आसन. प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का भी अभ्यास करता है।
समाधि के दो प्रकार हैं-सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात । सम्प्रज्ञात समाधि में 'चित्त' को सूक्ष्म आलम्बन देतेदेते केवल मैं हूँ 'अस्मि' इस शुद्ध आलम्बन पर स्थिरता प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। उसके पश्चात् 'अस्मि' रूप भावना का सहज परित्याग होता है और साधक असंप्रज्ञात की ओर प्रस्थित होता है। इस अवस्था में जीव को अपने तात्त्विक स्वरूप का परिज्ञान होता है। यही आत्म-साक्षात्कार है। योगशास्त्र में इसे 'कैवल्य' कहते हैं । इसके पश्चात् योगी जगत-व्यवहार को साक्षीरूप में देखकर जगत के उद्धार हेतु सात्त्विक कर्म करता रहता है। जीवन्मुक्ति सुख का अस्वाद लेते हुए असत्व-भाव से सत्वगुणों से सम्पन्न श्रेष्ठ अवस्था में बढ़ता चलता है। योगशास्त्र की यह चरम-अवस्था भारतीय मनोविज्ञान की एक अनमोल निधि है।
विज्ञों का ऐसा मन्तव्य है कि पतञ्जलि योग-सूत्र का चौथा पाद बाद में समाविष्ट किया गया है। किन्तु पतञ्जलि में योगशास्त्र का क्रम विकास सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो इस मत का प्रतिपादन करना अति सुलभ हो जाता है। योग का अर्थ चित्तवृत्तिनिरोध है, यह स्पष्ट रूप से प्रथम पाद में कहा गया है। यह चित्तवृत्तिनिरोध समाधि अवस्था में पूर्णता को प्राप्त होता है। अभ्यास और वैराग्य निरोधसाधक साधन हैं। उसका विश्लेषण करने. के पश्चात् पतंजलि ने समाधि की चर्चा की है। इसलिए पहले पाद का नाम समाधि-पाद रखा है। दूसरे पाद में समाधि-साधन के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार इन पाँच बहिरंग साधनों का उल्लेख है। तीसरे पाद में चित्तवृत्तिनिरोध के अन्तरंग-साधनों का उल्लेख आरम्भ में ही कर दिया है और इन तीन साधनों से ज्ञान और सामर्थ्य का अनुभव इस पाद में विस्तृत किया गया है और इसीलिए इस पाद का नाम विभूति-पाद रखा है। योग-साधना में प्राप्त सिद्धियों का यहाँ स्पष्टीकरण किया है ।" पतञ्जलि ने इन सिद्धियों को उपसर्ग माना है और साधक को कैवल्य अवस्था प्राप्त करने के लिए अग्रसर होने की पवित्र प्रेरणा प्रदान की है। इस क्रम में कैवल्य-पाद. का होना अत्यधिक आवश्यक है। कैवल्यपाद में कैवल्य-अनुभव के मार्ग में आने वाली बाधाओं से निवत्त होने के. लिए योगी अनेक शरीर एवं 'चित्त' का निर्माण करता है और अनन्त चित्त-विश्रान्ति की श्रेष्ठ भूमिका की ओर अग्रसर होता है । अन्त में विदेह-मुक्ति पद को प्राप्त कर लेता है। 'पाद' शब्द का अर्थ चतुर्थांश है इससे यह सिद्ध होता है कि योगशास्त्र पादचतुष्टय से ही युक्त है।
कितने ही आक्षेप करने वाले पतंजलि के सम्बन्ध में बहुत कम जानते हैं । कितने ही लोम समाधि, कुण्डलिनी और योग द्वारा प्राप्त कुछ सिद्धियों के प्रदर्शन मात्र को ही योग समझ बैठे हैं। इस विषय की चर्चा यहाँ पर अधिक करना उपयुक्त नहीं है। हम यहाँ इतना ही कहकर अपना वक्तव्य पूर्ण करते हैं
शूरोऽसि कृतविद्योऽसि
वृद्धो विद्वद्वरोऽसि च । यस्मिन् देशे स्वमुत्पन्नो
योगस्तत्र न ज्ञायते ॥
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